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अष्टसहस्री
[ द० प० कारिका
शिष्ट: । कर्मबन्धो न वीतमोहादिति सूक्तम् । तथैव' 'बुद्धेरपकर्षान्मोहनीयपरिक्षयलक्षणान्मोक्ष्यति' विपर्यये विपर्यासादित्यधिगन्तव्यं, प्रकृष्टश्रुतज्ञानादेः ' क्षायोपशमिकात् केव -
पुद्गल के सम्बन्ध से उदय होना सिद्ध है । पुद्गलविपाकी, क्षेत्रविपाकी, भवविपाकी के समान ही वे भी जीवविपाकी प्रकृतियां पक्ष में व्यापक हैं ।
भावार्थ- - उन जीवविपाकी प्रकृतियों का भी कर्म सहित जीव में ही विपाक होता है । कर्म सहित जीव भी कर्म पुद्गल के सम्बन्ध से कथंचित् मूर्तिक माने गये हैं और मूर्तिकपना ही तो पौद्गलिकपना है, ऐसा मान करके जीवविपाकी प्रकृतियों का भी पुद्गल के संबंध से ही उदय होना देखा जाता है । इसी हेतु से सभी कर्म प्रकृतियों को पौद्गलिकपना सिद्ध है ।
"पूर्व के अनुभूत विषयों का स्मरण करने से सुख-दुःख प्रदान करने वाले कर्मों में पुद्गल के सम्बन्ध से उदित होने का अभाव है । इसलिये यह हेतु पक्षाव्यापक ही है" ऐसा कहने वालों का भी इस उपर्युक्त कथन से ही निराकरण कर दिया है। क्योंकि परम्परा से पुद्गल के सम्बन्ध से ही उनका उदय होता है अर्थात् अनुभवपूर्वक स्मरण होता है और अनुभव पुद्गल के आश्रित है । अतः परम्परा से पुद्गल ही निमित्त है ।
कोई भी कर्म साक्षात् अथवा परम्परा से आत्मा को पुद्गल सम्बन्ध के बिना फल देते हुये नहीं देखा जाता है कि जिससे वह पौद्गलिक न हो सके, अर्थात् कर्म पौद्गलिक ही हैं । इसलिये कर्म बन्ध का पुद्गल विशेष सम्बन्धीपना है यह बात असिद्ध नहीं है एवं कर्म जीव को इष्ट-अनिष्ट फल देने में समर्थ हैं यह बात भी सिद्ध नहीं है, क्योंकि दृष्टकारण में व्यभिचार दिखने पर स्वसंविदित रूप शुभ और अशुभ फल का अनुभव अदृष्ट हेतुक है यह बात सिद्ध है । जैसे कि चक्षु अतीन्द्रिय होने से अदृश्य है फिर भी रूपादि को जानने से उसका अनुमान लगाया जाता है ।
शका-बन्ध को अज्ञान हेतुक मान लेने पर सूत्रकार ने तो मिथ्यादर्शनादि हेतुक भी माना है यह बात विरुद्ध क्यों नहीं हो जावेगी ?
समाधान- आपका यह कथन ठीक है, फिर भी मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये कषाय के साथ एकार्थ समवायी होने से अज्ञान के साथ अविनाभावी हैं वे ही इष्ट, अनिष्ट फल को देने में समर्थ कर्मबन्ध के हेतु हैं यह बात समर्थित की गई है । इसलिये यहाँ संक्षेप से मिथ्यादर्शन आदि का भी संग्रह हो जाता है ऐसा हम समझते हैं ।
"इसलिए मोहसहित जीव के ही अज्ञान से विशिष्ट कर्म बन्ध होता है किन्तु मोहरहित जीव के अज्ञान से बन्ध नहीं होता है । यह बिल्कुल ठीक ही कहा है ।"
उसी प्रकार बुद्धि के अपकर्ष से ( स्तोकज्ञान से ) मोहनीय के परिक्षय लक्षण अज्ञान से मोक्ष
1 स्थित्यनुभागाख्यः । व्या० प्र० । 2 एतत् । ब्या० प्र० । 3 अज्ञान्मोहिन एव कर्मबन्धो यथा । ब्या० प्र० । 4 तत्त्वज्ञानस्य । ब्या० प्र० । 5 मोहनीय रहितलक्षणात्ज्ञानस्तोकान्मोक्षो भवति उक्ताद्विपर्यये सति कोर्थः मोहनीयकर्म सहितलक्षणात् ज्ञानस्तोकाद्विपर्ययो बन्धो घटत इति ज्ञातव्यम् । दि० प्र० । 6 का । व्या० प्र० ।
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