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कर्म पौद्गलिक हैं ]
तृतीय भाग
[ ४७६
संविदितस्यादृष्टहेतुत्वसिद्धेः, रूपादिज्ञानस्य चक्षुराद्यदृश्यहेतुवत् । 'नन्वेवमज्ञानहेतुकत्वे बन्धस्य मिथ्यादर्शनादिहेतुत्वं कथं सूत्रकारोदितं न विरुध्यते इति चेत्, मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगानां कषायैकार्थसमवाय्यज्ञानाविनाभाविनामेवेष्टानिष्टफलदानसमर्थकर्मबन्धहेतुत्वसमर्थनात् मिथ्यादर्शनादीनामपि संग्रहात् संक्षेपत इति बुध्यामहे । ततो' मोहिन एवाज्ञानाद्विनरकादि गतियों में जीव को रोकने वाली हैं। इनके द्वारा भी साक्षाज्जीव में कुछ विकार नहीं होता है क्योंकि उन गतियों में रोकने मात्र से जीव का विकार असंभव है।
चार आनुपूर्वी क्षेत्रविपाकी हैं, मरण के अनन्तर नूतनशरीर को ग्रहण करने के लिये विग्रहगति में जाते हुये जीव के शरीर के परिणाम को उत्पन्न करने वाले औदारिक आदि शरीर के अभाव में भी पूर्व शरीर के आकार को धारण करता है इनके द्वारा भी साक्षात् जीव में कोई विकार नहीं होता है। पूर्वाकार को ज्यों की त्यों बनाये रखने में कारण होने पर भी उतने मात्र से जीव में विकृति असम्भव है।
जो कर्म साक्षात् जीव में कुछ विकार करते हैं वे विपाकी कहलाते हैं जैसे ज्ञानावरणाद घातिया कर्मों का समूह है। उन प्रकृतियों के द्वारा जीव के ज्ञानादि गुणों का साक्षात् आवरण होकर कुछ न कुछ विकार कराया जाता है । वे प्रकृतियां अट्ठत्तर हैं । घाति कर्म की ४७, वेदनीय की २, गोत्र की २, नाम कर्म की २७ । ये जीव विपाकी प्रकृतियाँ पौद्गलिक कैसे होंगी? क्योंकि पुद्गल के सम्बन्ध से इनका उदय नहीं होता है। इस पर आचार्य उत्तर देते हैं
जैन-नहीं। उन प्रकृतियों का भी कर्मसहित जीव के सम्बन्ध से ही उदय होता है । अतः
1 अत्राह कश्चित्स्वमतवर्ती । दि० प्र० । 2 अज्ञानान्मोहिनो बन्ध इत्ननेन प्रकारेण
|
।
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" | सा | द० । मा० । अन्त 2 | 5 | 9 | 28 | 5
घा० । ना० । संयुक्ते । 51 27 | "78
एता जीवविपाकिन्यः
पुद्गलविपाकिन्यः
प०
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वं संसास व गं | 5/5/6/3/6/5/2
| नि | आ| स्थि | | 1 2 |
प्रअ |उ | 2 | 1 | 1
संयुक्ते 62
एताः पुद्गल विपाकिन्यः
2
__ भाषि
भायूष
नव विपाकीनि
।
आनुपूव्यः
आनुपूर्व्यः
।
क्षेत्र विपाकिन्यः ।
। दि० प्र०। 3 अज्ञान्मोहिनो बन्धो यतः । ब्या० प्र० ।
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