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अष्टसहस्री
द०प० कारिका १८ जैन-उस केवल के पहले तो अशेषज्ञान का अभाव है क्योंकि इन्द्रियजन्य ज्ञान अशेष अतीन्द्रिय पदार्थ को विषय नहीं कर सकता है, अनुमान भी अत्यन्त परोक्ष पदार्थ के अगोचर है तथा आगम भी सामान्य से ही सभी पदार्थों को बताता है एवं ज्ञेयपदार्थ अनन्त हैं, आपने भी प्रकृति की पर्यायों और पुरुषों को अनन्त माना है ।
सांख्य-आगम से उत्पन्न हुआ प्रकृति और पुरुष के भेदज्ञान रूप अल्पज्ञान भी मोक्ष का कारण है उतने से ही पुरुष को मोक्ष हो जाता है और अनागत बंध रुक जाता है । आप जैन ऐसा भी नहीं कहना कि थोड़े ज्ञान से अवशिष्ट अज्ञान अधिक होने से बंध हो जावेगा क्योंकि अल्प भी तत्त्वज्ञान से बंध हो जावेगा, क्योंकि अल्प भी तत्त्वज्ञान से अज्ञान की शक्ति नष्ट हो जाती है इसलिये ज्ञानस्तोक से मिश्रित अज्ञान बंध का कारण नहीं है।
जैन—ऐसा मानने पर तो एकांत से अज्ञान से हो बंध होता है यह एकांत नहीं रहा । तथा सभी प्राणियों में कुछ न कुछ ज्ञान सम्भव है अतः सभी ही मुक्त हो जावेंगे। बंध का अभाव होने से संसार का अभाव ही हो जायेगा अथवा मुक्ति में भी पूर्ण ज्ञान का अभाव होने से बंध का प्रसंग आ जावेगा क्योंकि आपने ज्ञान को प्रकृति का परिणाम माना है तथा पुरुष का स्वरूप सकलज्ञान से रहित चैतन्य मात्र माना है । तथा ज्ञान के अभाव रूप चैतन्य स्वरूप की प्राप्ति को मोक्ष माना है अतः ज्ञान के अभाव से वहाँ बंध सम्भव है “न ज्ञान अज्ञानं" वहां सिद्ध है।
यदि आप कहें कि मिथ्याज्ञान लक्षण अज्ञान से बंध निश्चित है क्योंकि-"धर्म से उर्ध्वगति और अधर्म से अधोगति होती है" तथा ज्ञान से मोक्ष एवं अज्ञान से बंध होता है एवं यह विपरीत ज्ञान स्वाभाविक और आहार्य-गृहीत आदि से अनेक प्रकार का है। यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि ज्ञेय पदार्थ अनन्त हैं प्रत्यक्ष, आगम आदि से उनका ज्ञान नहीं होगा तथा सम्पूर्ण मिथ्याज्ञान को निवत्ति न होने से केवलज्ञान उत्पन्न नहीं हो सकेगा।
यदि आप कहें रागादि सहित मिथ्याज्ञान से बंध है, निर्दोष मिथ्याज्ञान से बंध नहीं होता है तो पुनः मिथ्याज्ञान से ही बंध होता है यह एकांत नहीं रहा । तथैव वैराग्य सहित अल्प तत्त्वज्ञान से मोक्ष मानना भी 'एकांत से ज्ञान से ही मोक्ष होता है' इस सिद्धान्त को समाप्त कर देता है ।
नैयायिक-दुःख, जन्म, प्रवृत्ति दोष और मिथ्याज्ञान का उत्तरोत्तर अभाव हो जाने से मोक्ष हो जाता है क्योंकि दुःखादिकों का अभाव तत्त्वज्ञानपूर्वक ही होता है । मिथ्याज्ञान से दोषों की उद्भूति अवश्य होती है।
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