SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 556
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्म पौगलिक हैं 1 तृतीय भाग [ ४७७ सिद्धिप्रसक्तेः 'प्रकृति प्रदेश' बन्धाभ्यामनैकान्तिकत्वप्रसङ्गाच्च' विवादापन्नत्वविशेषणमिष्टानि - ष्टफलदानसमर्थत्वविशेषणं च युक्तम्, इष्टानिष्टफलदानसमर्थपुद्गल विशेषसंबन्धत्वस्य' हेतोः कषायैकार्थसमवेताज्ञाननिबन्धनत्वेन व्याप्तस्य पथ्येतराहारादिषु पुद्गलविशेषसंबन्धे सुप्रसिद्धत्वादुदाहरणस्य साध्यसाधनधर्मवैकल्याभावात् ', हेतोश्चानन्वयत्वासंभवात् ', विवादापन्नो धूमोग्निजन्मा धूमत्वान्महानसधूमवदित्यादिवत् । [ नैयायिकः कर्म आत्मनो गुणं मन्यते, किंतु जैनाचार्याः तन्मान्यतां निराकृत्य कर्मपौद्गलिकं साधयंति । ] न चेष्टानिष्टफलदानसमर्थः कर्मबन्ध: पुद्गलविशेष संबन्धो न भवति, पुद्गलसंबको हेतु मानने पर आपका दृष्टांत असिद्ध हो जावेगा । एवं प्रकृति और प्रदेश बन्ध से अनैकांतिक भी जावेगा । जैन- नहीं, क्योंकि हमने विवादापन्न विशेषण एवं इष्टानिष्ट फलदान समर्थ विशेषण दिये हैं व असिद्ध एवं अनैकांनिक दोषों को अवकाश ही नहीं है क्योंकि "इष्टानिष्टफलदान समर्थ पुद्गलविशेषसंबन्धत्व" हेतु कषायैकार्थ समवायी अज्ञान निमित्त साध्य के साथ व्याप्त हैं एवं पथ्यापथ्य आहारादि में पुद्गल विशेष सम्बन्ध रूप पक्ष में सुप्रसिद्ध होने से उदाहरण भी साध्यसाधन धर्म से विकल नहीं है हेतु भी साध्य के साथ अन्वय सम्बन्ध रखने से अनन्वय दोष से युक्त नहीं है जैसे कि "विवादापन्न धूम अग्नि से उत्पन्न हुआ है क्योंकि वह धूम है जैसे रसोईघर का धूम " इत्यादि अनुमान निर्दोष हैं । [ नैयायिक कर्म को आत्मा का गुण कहते हैं, किन्तु जैनाचार्य उनका निराकरण करके कर्म को पौद्गलिक सिद्ध करते हैं । ] नैयायिक - इष्टानिष्ट फल को देने में समर्थ कर्मबंध पुद्गल विशेष सम्बन्धी नहीं हैं । जैन - आप ऐसा नहीं कह सकते, अर्थात् वे पुद्गल विशेष सम्बन्ध रूप ही हैं क्योंकि ' के सम्बन्ध से विपच्यमान होते हैं-उदय में आते हैं जैसे ब्रीह्यादि धान्य आतप जलादि पुदूगल 1 पथ्येतराहारादिति दृष्टान्तः । दि० प्र० । 2 अथ क्षीणकषायोपशान्तकषायस्य । दि० प्र० । 3 विवादापन्नं प्राणिनामिष्टफलदानसमर्थं इति विशेषणद्वयाभावे पुद्गल विशेष संबन्धः स्यादिति हेतु र्व्यभिचारी । दि० प्र० । 4 संबन्धाभ्याम् । इति पा० । दि० प्र० । 5 विशेषणत्व । इति पा० । दि० प्र० । 6 ननु च तथा च कथं युक्तमुदाहरणस्य साध्यसाधनवैकल्याद्धेतोश्चानन्वयादित्युक्त आह । ब्या० प्र० । 7 च । ब्या० प्र० । 8 विवादापन्नः प्राणिनामिष्टानिष्टफलदानसमर्थपुद्गल विशेष संबन्धत्वादिति हेतोरन्वयरूपेणाव्याप्तिः संभवति कथमित्युक्त आह यो विवादापन्नः प्राणिनामिष्टानिष्टफलदानसमर्थपुद्गल विशेष सम्बन्धः सः कषायैकार्थसमवेताज्ञाननिबन्धनो भवतीत्यन्वयः । दि० प्र० । 9 पर्वतादिस्यः । दि० प्र० । 10 अत्राह कश्चित्स्वमतवर्ती हे स्याद्वादिन् इष्टानिष्टफलदानसमर्थ: कर्मबन्धो भवतु तथापि पुद्गल विशेषसंबन्धो नास्तीत्युक्ते स्याद्वाद्याह कर्मबन्धः पक्षः पुद्गलविशेषसम्बन्धो भवतीति साध्यो धर्मः पुद्गलसम्बन्धेन विपच्यमानवात् य: पुद्गलसंबन्धेन विपच्यते तस्य पुद्गलविशेषसम्बन्धो भवति तथा ब्रह्मादिक जलवातातपादिलक्षणपुद्गलसम्बन्धेन विपच्यते चायं तस्मात् युद्गलविशेषसम्बन्धो भवतीति । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy