________________
४७६ ]
अष्टसहस्री
[ द०प० कारिका ६८ नात्र प्रतिज्ञार्थंकदेशत्वादसिद्धो' हेतुर्धर्मिणानेकान्तात्, तस्य' प्रतिज्ञार्थमिधर्मसमूहैकदेशत्वेपि प्रसिद्धत्ववचनात्, अनित्यः शब्दः शब्दत्वादित्यत्रापि हेतोरसिद्धत्वविरोधात् । न चात्र विशेष धर्मिणं कृत्वा सामान्य हेतुं ब्रुवतः कश्चिदोषः, प्रयत्नानन्तरीयकः शब्दो विनश्वरः, प्रयत्नानन्तरीयकत्वाद घटवदिति यथा। ननु शब्दस्य धर्मित्वे पक्षाव्यापको हेतु: स्यात्, समुद्रघोषादेः प्रयत्नानन्तरीयकत्वाभावात् । ततोत्र' प्रयत्नानन्तरीयक: शब्दो विशिष्टो धर्मीति चेत्तहि प्राणिनां पुद्गल विशेषसंबन्धस्य धमित्वे तथात्वस्य च हेतुत्वे दृष्टान्ता
आहारादि के सम्बन्ध के समान ।" अर्थात् कषाय सयुक्त अज्ञान निमित्तक ही बन्ध सत्य बंध रूप है, जैसे पथ्यापथ्य आहारादि का ग्रहण कषाय संयुक्त अज्ञान निमित्तक ही इष्टानिष्ट फल को देने में समर्थ पुद्गल विशेष से सम्बन्धित है तथा प्रकृत में भी समझना चाहिये।
'प्रतिज्ञार्थ का एक देश होने से यह हेतु असिद्ध है' ऐसा भी नहीं कहना क्योंकि धर्मी से अनेकांत हो जाता है अर्थात् धर्मी प्रतिज्ञार्थ का एक देश होते हुये भी असिद्ध नहीं है। प्रतिज्ञा का लक्षण है कि "धर्म धर्मि-समुदाय वचनं प्रतिज्ञा" अत: वह प्रतिज्ञार्थ धर्म-धर्मी के समुदाय का एक देश होते हुये भी प्रसिद्ध ही है क्योंकि 'प्रसिद्धो धर्मी' ऐसा सूत्रकारों का वचन है । 'अनित्यः शब्दः शब्दत्वात्' शब्द अनित्य है क्योंकि वह शब्द है इस अनुमान में भी हेतु असिद्ध नहीं है । यहाँ विवादापन्न धर्मी को विशेष करके सामान्य को हेतु बनाते हुये कोई दोष नहीं है जैसे "प्रयत्न के अनन्तर होने वाला शब्द विनश्वर है क्योंकि वह प्रयत्न के अनन्तर ही होता है जैस घट प्रयत्न के अनन्तर ही होता है ।" इस अनुमान में 'प्रयत्नान्तरीय त्वात्' हेतु असिद्ध नहीं है।
मीमांसक-केवल शब्द को धर्मी बनाने पर पक्ष मात्र में हेतु का अभाव होने से हेतु पक्षाव्यापक हो जावेगा क्योंकि समुद्र के घोष आदि शब्द प्रयत्न के बिना ही होते हैं ।
जैन-इसलिये यहाँ अनुमान में प्रयत्न के अनन्तर होने वाले शब्द से विशिष्ट ही धर्मी है । शंका-तब तो प्राणियों के पुद्गल विशेष सम्बन्ध को धर्मी बनाने पर और 'तथात्व'
1 साध्यः । दि० प्र० । 2 आह पर: हे स्याद्वादिन् धर्ममिणोः समुदायः प्रतिज्ञा सेवार्थः प्रतिज्ञार्थस्तस्यैकभाग. स्तस्य भावः प्रतिज्ञार्थंकदेशत्वं तस्मात् प्राणिनामिष्टानिष्ट फलदानसमर्थं पुद्गलविशेषसंबन्धादिति हेतुरसिद्ध इत्युक्ते स्याद्वाद्याह एवं न कस्मात्प्रतिज्ञार्थस्यैकदेशः पक्षोप्यस्ति तेन कृत्वा प्रतिज्ञार्थंकदेशत्वादिति भवद्वचनं व्यभिचरति = तस्य धर्मिणो धर्मधमिसमूहलक्षण प्रतिज्ञार्थस्यैकदेशत्वे सत्यपि वादिप्रतिवादिनोः प्रसिद्धत्वमस्तीति वचनात् । दि० प्र० । 3 यस्तु प्रतिज्ञार्थंकदेशत्वासिद्धश्चेत् । ब्या० प्र०। 4 प्रतिज्ञार्थे कदेशासिद्धो हेतुः । ब्या०प्र० । 5 धर्मिणो विवादापन्नस्य दृष्टान्तादीनामविवादापन्नानाञ्च साधारणस्वरूपम् । व्या० प्र०। 6 पुंसस्ताल्वोष्टपुष्टादिव्यापारलक्षणः प्रयत्नः । दि० प्र० । 7 स्या० शब्दः पक्षो नित्यो भवतीति साध्यो धर्मः शब्दत्वादिति सांख्यमुद्दिश्य सौगतरचितावानुमाने शब्दत्वादिति हेतुः सिद्ध एव कथं सिद्ध इत्युत्त, आह अनित्य इति धर्म धर्मिणं विधाय शब्दस्य सामान्य शब्दत्वं हेतुं ब्रवतो वादिनः कश्चिद्दोषो नास्ति । दि० प्र०। 8 पक्षाव्यापकाद्धेतो । अनुमाने । दि० प्र०। 9 जनः । ब्या० प्र० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org :