SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 554
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उभय और अवक्तव्य का खण्डन ] तृतीय भाग [ ४७५ बन्ध' इति वचनात्, ततोन्यतोपि' बन्धाभ्युपगमेतिप्रसङ्गात्, क्षीणोपशान्तकषायस्याप्यज्ञानाद्बन्धप्रसक्तेः । | केवलिनोऽपि प्रकृतिप्रदेशबंधी स्तः इति कथने सति कथयति आचार्याः यत् तौ बंधौ संसारकारणे न स्त: अकार्यकारित्वात् । ] प्रकृतिप्रदेशबन्धस्तस्याप्यस्तीति चेन्न, तस्याभिमतेतरफलदानासमर्थत्वात् सयोगकेवलिन्यपि संभवादविवादापन्नत्वात् । न चात्रागममात्र, युक्तेरपि सद्भावात् । तथा हि, विवादापन्नः प्राणिनामिष्टानिष्टफलदानसमर्थपुद्गलविशेषसंबन्धः कषायैकार्थसमवेताज्ञाननिबन्धनस्तथात्वात्पथ्येतराहारादिसंबन्धवत् । गुणस्थान में कषाय होते हुए भी पूर्णतया उपशांत हो चुकी है अतएव वे आत्मा में विकार उत्पन्न नहीं कर सकती हैं तथा क्षीण मोह नामक बारहवें गुणस्थान में कषाय का नाश ही हो चुका है, किन्तु इन दोनों गुणस्थानों में केवलज्ञान की उत्पत्ति का अभाव होने से अज्ञान विद्यमान है किन्तु कषाय का उदय न होने से बंध नहीं है। [केवली के भी प्रकृति, प्रदेश बंध होते हैं ऐसा कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि वे बंध संसार के कारण न होने से अकार्यकारी हैं।] शंका-प्रकृति और प्रदेश नाम के दो बन्ध तो वहाँ भी विद्यमान हैं। अर्थात् योग के निमित्त से होने वाले प्रकृति, प्रदेश बंध वहाँ पर हैं क्योंकि योग विद्यमान है अत: १३वें गुणस्थान तक भी योग के सद्भाव में योग निमित्तक बंध है। ___ समाधान नहीं, वे प्रकृति और प्रदेश बन्ध इष्टानिष्ट फल देने में असमर्थ हैं । वे केवली भगवान में भी विद्यमान हैं इसमें किसी को विवाद नहीं है फिर भी वे निरुपयोगी हैं अतएव होते हये भी जली हुई रस्सी के समान अनुपयोगी होने से नहीं होने के समान असत् ही हैं । इस कथन में आगम मात्र ही नहीं है, किन्तु युक्ति का भी सद्भाव है। ___ तथाहि-"विवादापन्न प्राणियों को इष्ट-अनिष्ट फल देने में समर्थ पुद्गल विशेष का सम्बन्ध (बंध) कषाय से एकार्थ समवायी, अज्ञान निमित्तक ही है क्योंकि वह उसी रूप है, पथ्यापथ्य 1आह कश्चित्स्वमतवर्ती तस्य क्षीणोपशान्तकषायस्य मुनेः प्रकृतिप्रदेशबन्धोस्तीति चेत् स्या. एवं न सोकषायबन्ध इष्टानिष्टफलदानेऽसमर्थो यत:=समर्थों भवति चेत्तदा सयोगकेवलिनि भगवत्यपि भवतु विवादो नास्त्यत्र-पूनराह स्वमतवर्ती अत्र बन्धाभावसाधने आगममात्रं नानुमानमित्युक्ते स्याद्वाद्याह । अत्र केवलमागममात्र साधनं न युक्तिरप्यस्ति । दि० प्र० । 2 इष्टानिष्टः । ब्या० प्र० । 3 दग्धरज्जुवत् । ब्या. प्र०। 4 प्रकृतिप्रदेशस्य । ब्या०प्र०। 5 स्थित्यनुभागाख्यः । दि० प्र०। 6 समर्थः पुद्गलविशेष । इति पा० । दि० प्र० । विशेषण । दि० प्र०।7 पक्ष:हेतश्च । दि० प्र०। 8 कषायेण सहकस्मिन्नात्मलक्षणेथे समवेतं यदज्ञानं तन्निबन्धनः । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy