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________________ अष्टसहस्री ४७४ ] [ द० प० कारिका ६८ 'बन्धमोक्षाभाव एव परलोकाभावा' दिति न भवेत् ? इत्यारेका निराचिकीर्षवः प्राहुः अज्ञानान्मोहिनो' बन्धो न ज्ञानाद वीतमोहतः । ज्ञानस्तोकाच्च मोक्षः स्यादमोहान्मोहिनोन्यथा ॥६॥ मोहनीयकर्मप्रकृतिलक्षणादज्ञानाद्युक्तः कर्मबन्धः स्थित्यनुभागाख्यः स्वफलदानसमर्थः, क्रोधादिकषायैकार्थसमवायिनो' मिथ्याज्ञानस्य च अज्ञानस्य च मोहनीयकर्मप्रकृति लक्षयतः पुंसो बन्धनिबन्धनत्वोपपत्तेः 'सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान्पुद्गलानादत्ते स के होने पर उसके निराकरण करने की इच्छा रखते हुये आचार्यवर्य श्री समन्तभद्र स्वामी अगली कारिका में कहते हैं स्याद्वाद में मोह सहित, अज्ञान बंध का कारण है। मोहरहित अज्ञान बहुत भी, नहीं बंध का कारण है ।। अल्पज्ञान भी मोहरहित है, उससे मोक्ष प्राप्त होता । किन्तु मोहयुक्त बहुत ज्ञान से, कर्मबंध निश्चित होता ।।६८॥ कारिकार्थ-मोह सहित अज्ञान से बंध एवं मोह रहित अज्ञान से बंध नहीं होता है । मोह रहित अल्पज्ञान से भी मुक्ति होती है किन्तु मोह सहित ज्ञानस्तोक से मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती है ॥६॥ मोहनीय कर्म प्रकृति लक्षण अज्ञान से कर्मबन्ध युक्त है वह अपने फल को देने में समर्थ स्थिति और अनुभाग नाम वाला है क्योंकि क्रोधादि कषाय से एकार्थ समवायी जो मिथ्याज्ञान है वही अज्ञान है, उस अज्ञान सहित मोहनीय कर्म प्रकृति को स्पष्ट करते हुए पुरुष के मिथ्याज्ञान रूप अज्ञान ही बंध का कारण माना गया है। "सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान पद्गलानादत्तेसबंधः" ऐसा सूत्रकार का वचन है अर्थात् कषाय सहित जीव कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है उसी का नाम बंध है। उससे भिन्न से भी बंध को स्वीकार करने पर अतिप्रसंग दोष आता है । क्षीण मोह और उपशांत कषाय जीव के भी अज्ञान से बंध का प्रसग आ जावेगा अर्थात् ग्यारहवें उपशांत कषाय 1 ईषत्याघातज्ञानात् । दि० प्र०। 2 नाज्ञानात् । इति पा० । ब्या० प्र० । सकलवस्तुनः परिज्ञानाभावात् । ब्या प्र०। 3 विगतमोहनीयात् । व्या प्र०। 4 ज्ञानस्तोकाद्बन्धः । ब्या० प्र०। 5 ज्ञानावरणादिकर्मणामानवगमादिस्व. भावादप्रच्युतिः स्थितिः । ब्या० प्र०। 6 इष्टानिष्टः । दि० प्र०। 7 कषायेण सहाज्ञानस्यैकस्मिन्नात्मलक्षणेर्थे । ब्या० प्र०। मोहितपुरुषस्य क्रोधादिकषायसमवेतं मिथ्याज्ञानमज्ञानञ्च बन्धाकरणमुत्पद्यते । दि. प्र० । 8 ततः सकषायत्वादन्यतोकषायत्वाद्बन्धोङ्गीक्रियते चेत्तदातिप्रसङ्गः स्यादतिप्रसंगस्य लक्षणमाह क्षीणकषायस्योपशान्तकषायस्य मुने बन्धः प्रसजति । दि० प्र०19 कर्मणो हेतोः पौद्गलिकात् सकषायो भवति न स्वभावतस्ततोन्यापेक्षस्य कषायस्य न सातत्यम् । ब्या० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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