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ज्ञान और अज्ञान से मोक्ष बन्ध के एकांत का खण्डन ] तृतीय भाग
[ ४७१ तद्विपरीतज्ञानलक्षणाविद्योदये क्वचिदपि ज्ञेये 'तत्प्रत्ययसंस्काराणां' पुण्यापुण्यानेज्यप्रकाराणां शुभाशुभानुभयविषयाणामवश्यंभावात्, तद्भावे च वस्तुप्रतिविज्ञप्तिलक्षणविज्ञानस्य' विकल्पात्मनः संभवात्, तत्संभवे च विज्ञानसमुद्भूतरूपवेदनासंज्ञासंस्कारज्ञानलक्षणनामपृथिव्यादिभूतचतुष्टयात्मकरूपसमुदायलक्षणस्य' नामरूपस्य सिद्धेः, तत्सिद्धौ च चक्षुरादिषडायतनस्यात्मकृत्यक्रियाप्रवृत्तिहेतोः प्रसूतेः, तत्प्रसूतौ च तद्धेतूनां षण्णां स्पर्शकायानां रूपं चक्षुषा पश्यामीत्यादिविषयेन्द्रियविज्ञानसमूहलक्षणानां प्रादुर्भावात् तत्प्रादुर्भावे10 स्पर्शानुभवलक्षणाया वेदनायाः सद्भावात्, तत्सद्भावे" च विषयाध्यवसानलक्षणतृष्णायाः समुत्पादात्, तत्समुत्पादे2 तृष्णावैपुल्यलक्षणस्योपादानस्योदयात्, तदुदये च पुनर्भवजनककर्मलक्षणभवस्य भावात्, तद्भावे चापूर्वस्कन्धप्रादुर्भावलक्षणाया जातेरुत्पादात्र, तदुत्पत्तौ च स्कन्धपरिपाकप्रध्वंस
वे शुभ, अशुभ और अनुभय विषयक हैं, वे अवश्य ही होते हैं और उनके होने पर वस्तु की विज्ञप्ति लक्षण विकल्पात्मक विज्ञान उत्पन्न होता ही है। उसके होने पर विज्ञान से उत्पन्न रूप, वेदना, संज्ञा संस्कार, विज्ञान, लक्षण नाम चतुष्टय होते हैं एवं पृथ्वी आदि भूत चतुष्टय को रूप कहते हैं । इन नामरूप के समुदाय लक्षण को नामरूप कहते हैं। उन नामरूप के सिद्ध होने पर चक्ष, श्रोत्र, घ्राण, स्पर्शन, रसना और मन लक्षण छह आयतन होते हैं जो कि आत्मा के करने योग्य क्रिया की प्रवृत्ति के हेतुक है। उनकी उत्पत्ति होने पर उन हेतुक छह स्पर्शकाय विषयेन्द्रिय विज्ञान समूह लक्षण उत्पन्न होते हैं जैसे "रूपं चक्षषा पश्यामि" इत्यादि ये विषय कहलाते हैं। उन विषयों के होने पर स्पर्श अनुभव लक्षण वेदना होती है। उस वेदना के सद्भाव में विषयों की आकांक्षा रूप तृष्णा उत्पन्न होतो है, उसके होने पर तृष्णा की विपुलता लक्षण उपादान उत्पन्न होता है । अर्थात् उन-उन पदार्थों को ग्रहण करने के लिये प्रवृत्ति होती है। प्रवृत्ति के होने पर पुनर्भव को उत्पन्न करने रूप कर्म लक्षण भव होता है। उसके होने पर अपूर्व स्कंध के प्रादुर्भाव लक्षण जाति होती है पुनः उस जाति से स्कंध के परिपाक और विध्वंस लक्षण जरा और मरण होता है। अतः इस प्रकार की परम्परा से कोई भी केवली सुगत नहीं हो सकता है, अ यथा-यदि इन बारह निमित्तों का आश्रय लेकर संसार न मानों तब तो तुम्हारी प्रतिज्ञा का विरोध हो जायेगा अर्थात् जो तुमने कहा है कि "अविद्या
1 अविद्याकारणसंस्काराणाम् । ब्या० प्र०। 2 क्षणिकात्मात्मीयाशुचिदुःखेषु नित्यात्मीयशुचिसुखलक्षणाबुद्धिरविद्या तस्या संस्कारा जायन्ते तेभ्यो विज्ञानं तस्मान्नामरूपं तत. षडाय-नं एवमूत्तरोत्तरकारणं ज्ञेयम् = अविद्धा। दि० प्र० । 3 संस्कारः । दि० प्र० । 4 परिज्ञान । दि० प्र०। 5 विज्ञान । दि० प्र०। 6 अनुभवरूपा । दि० प्र० । 7 ताद्धि । दि० प्र० । 8 षडायतनम् । दि० प्र० । 9 श्रोत्रादि । दि० प्र०। 10 स्पर्श । दि० प्र०। 11 वेदना । दि० प्र०। 12 तृष्णा । दि० प्र० 13 प्राचुर्य । दि० प्र०। 14 उपादान । दि० प्र०। 15 भव । दि० प्र० । 16 आकांक्षण । दि० प्र०।17 पूर्वस्कन्धात् । ब्या० प्र०।
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