________________
४७२ ]
अष्टसहस्री
[ ८० प० कारिका ६६ लक्षणजरामरणसद्भावात्। केवलिनः कस्यचित्सुगतस्यासंभवप्रसङ्गात् अन्यथा प्रतिज्ञातविरोधात । ततः सूक्तं, यदि बन्धोयमज्ञानान्नेदानी कश्चिन्मुच्यते, सर्वस्यैव' क्वचिदज्ञानोपपत्तेज्ञेयानन्त्यादिति' केवलिनः प्राक् सर्वज्ञासंभवात् । यदि पुनर्ज्ञाननिर्हासाद्ब्रह्मप्राप्तिरज्ञानात् सुतरां प्रसज्येत, दुःखनिवृत्तेरिव सुखप्राप्तिः । न ह्यल्पदुःखनिवृत्तः सुखप्राप्तो बहुतरदुःखनिवत्ती सूतरां सुखप्राप्तिरसिद्धा, येन ज्ञानहानेरल्पाया: परब्रह्मप्राप्तौ सकलाज्ञानात्तत्प्राप्तिः सतरां न स्यात् । ततो नायमेकान्तः श्रेयानाभासते ज्ञानस्तोकान्मोक्ष इति, अज्ञानाद् ध्र वो बन्ध इत्येकान्तवत् ।
तृष्णाभ्यां बंधः" "द्वादशाङ्ग द्वारक: ससारः" वह विरुद्ध हो जावेगा। इसलिये हमने यह ठीक ही कहा है कि कोई केवली नहीं हो सकेगा।
___ यदि अज्ञान से यह बंध माना जावे तब तो कोई भी मुक्त नहीं हो सकेगा क्योंकि सभी को किसी न किसी विषय में अज्ञान है ही है क्योंकि ज्ञेय पदार्थ तो अनन्त हैं। इस प्रकार से तो केवली होने के पहले सर्वज्ञता असम्भव ही है । पुनः ज्ञान के निसि-अल्पज्ञान के अभाव से मोक्ष की प्राप्ति होती है तब तो अज्ञान से भी मोक्ष की प्राप्ति हो जानी चाहिये, जैसे कि दु:ख के अभाव से ही सुख की प्राप्ति होती है वैसे ही ज्ञान के अभाव से ही मोक्ष की प्राप्ति हो जानी चाहिये।
अल्प दुःख की निवृत्ति होने से सुख की प्राप्ति होती है पुनः बहुत से दुःखों का अभाव हो जाने पर विशेष रूप से सुख की प्राप्ति होती ही है यह बात असिद्ध तो है नहीं कि जिससे अल्पज्ञान की हानि से परब्रह्म-मोक्ष की प्राप्ति होने पर पूर्ण अज्ञान से अर्थात् सकल ज्ञान के नाश से मोक्ष की प्राप्ति न हो सके अर्थात् थोड़े से ज्ञान की हानि से यदि मोक्ष होती है तो पूर्णतया ज्ञान के अभाव में विशेष रूप से मोक्ष की प्राप्ति हो जानी चाहिये ।
इसलिये 'अल्पज्ञान से मोक्ष होती है' यह एकान्त पक्ष श्रेयस्कर नहीं है जैसे कि अज्ञान से निश्चित ही बंध होता है यह पक्ष श्रेयस्कर नहीं है ।
1 स्कन्धपरिपाकश्च प्रध्वंसश्च तो लक्षणं यस्य जरामरणस्य । ब्या०प्र० । 2 जनस्य । ब्या० प्र०। 3 ज्ञेयानन्त्येप्यज्ञानोपपत्तिः कुत इत्याशंकायामाह । ब्या० प्र०। 4 केवलोत्पत्ते. पूर्वम् । ब्या० प्र०। 5 कारिकास्थितमन्यथा शब्दं विवृण्वन्नाह सुतरामिति । ब्या० प्र०। 6 का। दि० प्र०। 7 स्थाद्वाद्याह। यतः सकलाज्ञानामोक्षस्तस्मात् ज्ञानस्तोकान्मोक्ष इत्ययमेकान्तः श्रेयान्न प्रतिभासते यथा अज्ञानाद् ध्रवो बन्ध इत्येकान्तः श्रेयान= अथ कश्चिदुभयवाद्याह हे स्याद्वादिन् ! तय कस्यात्मन एकस्मिन्नेव काले ज्ञानस्तोकात्सर्वप्रकारेण मोक्षः ज्ञानस्तोकसहितस्याज्ञानाबधश्चेत्येकान्तः श्रेयान् भवतु स्या० एकान्तवादिनामेकशः क्रमेण प्रतिषेधादुभयकात्म्यं श्रेयस्कर न = आह कश्चित्तहि उभयकात्म्यस्य विरोधात् सर्वथावाच्यमस्तु स्या० अवाच्यतैकान्तेप्यवाच्यमित्युच्चारो न युज्यते । दि० प्र० । 8 सर्वेन्द्रियज्ञानाभावादतिशयेन परमब्रह्मप्राप्तिर्भवेत् । दि० प्र० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org