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________________ ४६८ ] अष्टसहस्री [ द०प० कारिका ६६ मिथ्याज्ञानस्य कात्स्न्येनानिवृत्ती सकलदोषनिवृत्तिः । तदनिवृत्तौ च न 'प्रवृत्तिनिवृत्तिः । तदनपाये च न जन्मनोऽपायः । ततो नाशेषदुःखापायश्च । इति गता निःश्रेयसकथा । यदि पुनरात्माद्यपवर्गपर्यन्तप्रमेयतत्वज्ञानादपरनिःश्रेयसप्राप्तिरिष्यते न पुनः प्रमाणादिषोडशपदार्थविशेषतत्त्वज्ञानाद् येन ज्ञानस्तोकादेव विमोक्षसिद्धेः केवली न स्यादिति मतं तदा बहोमिथ्याज्ञानाद्बन्धः किं न भवेत् ? तत्त्वज्ञानेन तस्य प्रतिहतत्वादिति चेत्, कथमेवं मिथ्याज्ञानाद् ध्र वो बन्धः स्यादित्युक्तम् ? 'दोषसहितान्मिथ्याज्ञानाद्बन्ध इति चानेन' का अभाव भी नहीं हो सकता है और इसीलिये अशेष दुःखों का अभाव भी असम्भव है अत: आप नैयायिक के यहां मोक्ष की बात ही समाप्त हो जाती है। नैयायिक-आत्मा से लेकर अपवर्ग पर्यन्त प्रमेय तत्त्व होते हैं अर्थात् आत्मा, शरीर, इन्द्रिय, पदार्थ, बुद्धि, मन, प्रवृत्ति, दोष, प्रेत्यभाव, फल, दुःख और अपवर्ग ये १२ प्रमेयतत्त्व होते हैं। इनके ज्ञान से अपर निःश्रेयस की प्राप्ति हो जाती है किन्तु प्रमाणादि षोडश पदार्थ विशेष के तत्वज्ञान से मुक्ति नहीं होती है कि जिससे अल्पज्ञान से ही मुक्ति सिद्ध हो जाने से केवली न हो सके अर्थात् अल्पज्ञान से ही मोक्ष हो जाती है अर्थात् हमारे यहां मुक्ति के दो भेद हैं पर और अपर । कैवल्य प्राप्तिपूर्वक शरीर सहित स्थिति को अपर मुक्ति कहते हैं । सकलकर्म की निवृत्ति होने से शरीर का विनाश हो करके निरञ्जन, सिद्धात्मा रूप से स्थिति परमुक्ति कहलाती है। अतः आत्मादि अपवर्ग पर्यंत प्रमेयतत्त्व का ज्ञान हो जाने से अपर निःश्रेयस की प्राप्ति हो जाती है । इसमें प्रमाणादि सोलह पदार्थों का तत्त्वज्ञान नहीं है अतएव अल्पज्ञान से अपर मुक्ति होती है। जैन- यदि आपकी ऐसी मान्यता है तब तो बहुत से मिथ्याज्ञान से बन्ध क्यों नहीं होगा ? नैयायिक-तत्त्वज्ञान से वह मिथ्याज्ञान प्रतिहत हो जाता है अतएव उससे बंध नहीं होता है। 1 प्रवत्तिस्तदनपाये । इति पा० । दि० प्र०। 2 स्या० यावन्मिथ्याज्ञानं साकल्येन न निवर्तते तावत्सकलदोषनिवत्तिर्न चास्ति सकलदोषस्य सद्भावे धर्माधर्मिसंज्ञिकाया: प्रवत्तरभावो न तस्याः प्रवृत्तेः सद्भावे सति संसारस्य विनाशो न ततः संसारस्याविनाशादशेषदुःखविनाशो न । एवं सांख्यस्य मोक्षवार्तापि गता। दि० प्र० । 3 आह सांख्यो नैयायिको वा । जीवादिमोक्षपर्यन्तप्रमेयतत्त्वज्ञानाज्जीवन्मुक्तिप्राप्तिः कथ्यते । अस्मदादिभिः प्रमाणादिषोडशपदार्थविशेषतत्त्वपरिज्ञानादपरा निःश्रेयसप्राप्तिन ज्ञानस्तोकादेव मोक्षघटनाद्येन केन ज्ञानस्तोकादेव मोक्षघटना केवली न स्थात् = स्याद्वाद्याह हे सांख्य । यदि त्वयेति मतं तदाअहो मिथ्याज्ञानाद्बन्धः कि न भवेदपित भवेत् = सांख्य आह तत्त्वज्ञानेन कृत्वा तस्य मिथ्याज्ञानस्य स्फेटितत्वात् मिथ्याज्ञानाबन्धो नेति चेत् = स्या० एवं सति मिथ्याज्ञानाद् ध्र वो बन्ध स्यात् इत्युक्तं तव कथं घटते अपितु न घटते । दि० प्र०। 4 जीवन्मुक्तिः । ब्या० प्र०। 5 साख्यः दोषसहितान्मिथ्याज्ञानाद्बन्धो भवति = स्याद्वादी हे सांख्य इति वचोनिराकृतमनेन वक्ष्यमाणप्रकारेण योगिज्ञानात्पूर्वदोषसद्भावोस्ति कस्माद्दोषकारणमिथ्याज्ञानसंतानस्य संभवात एतेन योगिज्ञानात्पूर्व मिथ्याज्ञानकारणजनित दोषसद्भावव्यवस्थापनेन इच्छाद्वेषाभ्यां बन्धो भवतीति वैशेषिकमत निरस्त कस्मात्केवलिनोभावप्रसङ्गात् । दि० प्र० । 6 कथमित्यादिनन्थेन । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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