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________________ ज्ञान और अज्ञान से मोक्ष बन्ध के एकांत का खन्डन ] तृतीय भाग [ ४६७ [ नैयायिकास्तत्त्वज्ञानान्मोक्षं मन्यते तन्निराकरणं कुर्वति जैनाचार्याः । ] 'एतेनैतदपि प्रत्याख्यातं, यदुक्तं, परेण "दु:खजन्मप्रवृत्ति दोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये' तदनन्तराभावान्निःश्रेयस' इति, मिथ्याज्ञानादवश्यं दोषोद्भूतौ दोषाच्च प्रवृत्तेर्धर्माधर्मसंज्ञिकायाः प्रादुर्भावे, 'ततोपि जन्मनः प्रसूतौ, ततोपि दुःखस्यकविंशतिप्रकारस्य प्रसवे, केवलिनः साक्षादशेषतत्त्वज्ञानवतोसत्त्वप्रसङ्गात, अस्मदादिप्रत्यक्षानुमानोपमानागमः प्रमाणः सकलतत्त्वज्ञानासंभवान्निःशेषमिथ्याज्ञाननिवृत्त्ययोगात् सकलज्ञेयविशेषाणामानन्त्यात्', सोयं 1 प्रमाणार्थोऽपरिसंख्येयः प्रमाणभद्मेदस्यापरिसंख्येयत्वादिति स्वयमभिधानात् । न च [ न यायिक तत्त्वज्ञान से मोक्ष मानता है उसका निराकरण । ] इसी उपर्युक्त कथन से उन नैयायिकों का भी निराकरण कर दिया गया है कि जिनका कहना है- "दु:ख, जन्म, प्रवृत्ति और दोष तथा मिथ्याज्ञान का उत्तरोत्तर अभाव हो जाने पर उसके अनन्तर का अभाव हो जाने से मोक्ष होती है अर्थात् दुःखादिकों का अभाव तत्त्वज्ञानपूर्वक होता है और वह पूर्ण तत्त्वज्ञान नैययिकों के यहाँ नहीं है इसलिये प्रकृत मिथ्याज्ञान ही रह जाता है ऐसा तात्पर्य हुआ। मिथ्याज्ञान से दोषों की उद्भूति अवश्य ही होती है, दोषों से धर्म-अधर्म संज्ञक प्रवृत्ति का आविर्भाव होता है, उस प्रवृत्ति से जन्म होता है पुनः उस जन्म के होने से इक्कीस प्रकार के दुःखों का प्रसव होता है । अतएव अशेषतत्त्वज्ञानवान् केवली के अभाव का प्रसंग आ जाता है। उन नैयायिकों का ऐसा कहना है कि "हम लोगों के प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम और उपमान प्रमाणों से सम्पूर्ण तत्त्वज्ञान का होना असम्भव है। अतः नि:शेष मिथ्याज्ञान की निवृत्ति भी असम्भव है तथा च ज्ञेयविशेष पदार्थ भी अनन्त हैं। अर्थात् सूक्ष्मादि पदार्थ भी अन्नत हैं अर्थात् सूक्ष्मादि पदार्थ हम लोगों के प्रत्यक्षादि के विषय नहीं हैं। यह प्रमाण का अर्थ अपरिसंख्येय है क्योंकि "प्रमाण वाले जीव के भेद भी अनन्त हैं" ऐसा स्वयं उनका कथन है। मिथ्याज्ञान का सम्पूर्णतया अभाव न होने से सम्पूर्ण दोषों का अभाव होना भी शक्य नहीं है । दोषों का अभाव न होने पर प्रवृत्ति का अभाव भी नहीं हो सकता है। प्रवृत्ति के अभाव में जन्म 1 सांख्यमतनिराकरणपरेण ग्रन्थेन । व्या० प्र० । 2 इच्छादोष । ब्या० प्र०। 3 साध्य । ब्या०प्र०। 4 पूर्वपूर्वाभावः। ब्या० प्र० । 5 पूर्वपूर्वमिथ्याज्ञानाभावादोषास्तदभावे प्रवृत्त्यभावरतस्याभावात्तन्मनोप्यभावस्तस्याभावे भावः मिथ्याज्ञानाद्यभावे दोषाद्यभावइति भावः । ब्या० प्र०। 6 स्याद्वाद्याह सांस्येन यदृयुवतं परिणाम दुःखादीनामत्तरोत्तरविनाशेऽन्त्यस्य मिथ्याज्ञानस्यापि विनाशे मोक्ष इत्यन्त्यमिथ्याज्ञानादवश्यं दोषप्रवत्त्यादयः संभवन्ति ततो दोषादिसदभावे केवलिनोभावः प्रसजति । दि.प्र.17 धर्माधर्मिसंज्ञकप्रवृत्तिप्रादुर्भावात् । दि० प्र०। 8 जन्मप्रसूतेः । दि० प्र० । १ स्याद्वाद्याह छद्मस्थ प्रत्यक्षादिभिश्चतभिः प्रमाणः सकलतत्त्वज्ञानं न संभवति कस्मात् समूलमिथ्याज्ञानाभावस्याघटनात् पुनः सकलज्ञेयविशेषानन्ता यतः । दि० प्र०। 10 ता । ब्या० प्र०। 11 सांख्यस्य । दि०प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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