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अज्ञान से बंध और ज्ञान से मोक्ष के एकांत का खण्डन] तृतीय भाग
निरोधात्' इति 'तदप्ययुक्तं, स्तोकज्ञानापेक्षया बहोरज्ञानाद्बन्धस्य प्रसङ्गादेष्यद्बन्धनिरोधासंभवाद् विमोक्षानुपपत्तेः । अथ तत्त्वज्ञानेन स्तोकेनापि बहोरज्ञानस्य प्रतिहतशक्तिकत्वान्न 'तनिबन्धनो बन्धः संभवतीति मतं तदप्यसत्, प्रतिज्ञातविरोधात् । यत् खलु प्रतिज्ञातमज्ञानाद् ध्रु वो बन्ध इति तद्विरुध्यते । 'अथाखिलज्ञानाभावादज्ञानादवश्यंभावी बन्धो न ज्ञानस्तोकमिश्रणादिति मतं तदप्यसम्यक, सर्वदा बन्धाभावप्रसङ्गात् सर्वस्य प्राणिनः किंचिज्ज्ञानसंभवान्मुक्तौ' बन्धप्रसक्तेश्च, तत्र सकलज्ञानाभावस्य बन्धहेतोः संभवात्, असंप्रज्ञातयोगावस्थायां च तदा' द्रष्टुः स्वरूपेवस्थानमिति वचनात् । स्वरूपं च पुंसश्चैतन्यमानं सकल
जैन-यह कथन भी असम्यक है। ऐसा मानने पर तो सदैव ही बन्ध के अभाव का प्रसंग आ जावेगा क्योंकि सभी प्राणियों में तो कुछ न कुछ ज्ञान सम्भव ही है एवं मुक्ति में भी बन्ध का प्रसङ्ग आ जावेगा क्योंकि वहां भी सम्पूर्ण ज्ञान के अभाव रूप बन्ध का हेतु सम्भव ही है, कारण आपके यहाँ "असंप्रज्ञातयोग अवस्था में दृष्टा-आत्मा का स्वरूप में अवस्थान माना है" अर्थात् मुक्ति में असंप्रज्ञात योग नाम का निरालम्बन ध्यान साक्षात् परम मोक्ष का हेतु है ऐसा आपने माना है । पुरुष का स्वरूप सकलज्ञान से रहित चैतन्य मात्र है इसलिये आपके यहाँ मोक्ष का हेतु ही बन्ध का हेतु हो जावेगा अर्थात् सांख्य ने ज्ञान को प्रकृति का परिणाम माना है । वह चेतन रूप जीव से भिन्न ही है अतः उस ज्ञान का मुक्ति में अभाव होने से सकलज्ञान का अभाव सुघटित ही है इसलिये मोक्ष में बन्ध का प्रसंग आरोपित किया है एवं ज्ञान का अभाव बन्ध का कारण है ऐसा आपने माना है।
सांख्य--तत्त्वज्ञान के प्रागभाव से संसारावस्था में बन्ध है, किन्तु तत्त्वज्ञान के प्रध्वंसाभाव से बन्ध नहीं है क्योंकि वह प्रध्वंसाभाव तो मोक्ष अवस्था में है।
जैन-यदि आप ऐसा कहें तब तो किसी को तत्त्वज्ञान होने के बाद किसी अंतरंग अथवा बहिरंग विपर्यज्ञान के कारणों से विपर्यज्ञान के उत्पन्न हो जाने पर तत्त्वज्ञान का प्रध्वंस हो जाने से भी बंध कैसे हो सकेगा?
1 सांख्यवचनम् । ब्या० प्र०। 2 अनागतबन्धः । ब्या० प्र०। 3 आह सांख्यः हे स्याद्वादिन् स्तोकेनापि तत्त्वज्ञानेन बहतरमज्ञानं विगतसामर्थ्य स्याद्यतः ततो बहुज्ञानकरणजो बन्धो न जायते =स्या० हे सांख्य यदुक्तं, त्वया तदप्यसत्यमज्ञानाद् बहवो बन्ध इति तव प्रतिज्ञाया विरोधघटनात् । दि० प्र० । 4 बहुज्ञानम् । दि० प्र०। 5 सांख्यः समस्तज्ञानरहितादज्ञानाद्वन्धो भवत्येव स्तोकज्ञानेन संयुक्तादज्ञानाद्बन्धो न भवतीति । दि०प्र०। 6 स्याद्वादी हे सांख्य ! तदपि वचस्ते मिथ्या एवं सति सदाऽवन्धः प्रसजति कस्मात्सकलस्य संसारिणः स्पर्शनादीन्द्रियजातं किञ्चन ज्ञानं भवत्येव यतस्तथामोक्षे बन्धः कुत इत्युक्त आह तत्र मुक्तो सर्वज्ञानाभावो बन्ध हेतुः संभवति यतः=कि लक्षणो मोक्ष इत्युक्त आह यदा प्रधानधर्मरूपसम्यग्ज्ञानरहितावस्था तदा पुरुषस्य स्वरूपे व्यवस्थिति: मोक्ष इति सांख्य सिद्धान्तात् । पुरुषस्य स्वरूपं किमित्युक्त आह स्वरूपञ्च पुंसः सकलज्ञानरहितं चैतन्यमात्रमिति सांख्यसिद्धान्त एवं यः स्तोकज्ञानलक्षणो मोक्षहेतुः स एव बन्ध हेतुः स्यात् । दि० प्र०। 7 अज्ञानाद्बन्ध इत्येतदप्यसम्यगित्यत्रवान्वयरूपतया हेतुद्वयं दृष्टव्यम् । ब्या० प्र.। 8 मुक्त्यबुद्धधभाव त् । दि० प्र०।9 असंप्रज्ञातयोगावस्थाकाले । दि० प्र० ।
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