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________________ ४६२ ] अष्टसहस्री [ द० ५० कारिका ६६ विज्ञानस्यातीन्द्रियार्थाविषयत्वादनुमानस्य चात्यन्तं 'परोक्षार्थागोचरत्वादागमस्यापि सामान्यतोऽविशेषार्थविषयत्वादयोगिनामशेषविशेषविषयज्ञानविरोधात् । न चाक्षलिङ्गशब्दज्ञानपरिच्छेद्य एवार्थस्ततोऽपरो नास्तीति शक्यं वक्तुं, ज्ञेयस्यानन्त्यात्, प्रकृति विवर्तविशेषाणां पुरुषाणां चानन्ततोपगमात् । स्यान्मतं,-'प्रकृतिपुरुषविवेकज्ञानादेवागमबलभाविनः स्तोकादपि तत्त्वाभ्यासस्वात्मभावात् केवलज्ञानभृद्भवेत् । स एव च तस्य विमोक्षः पुनः संसाराभावादनागतबन्ध जैन- उस केवलज्ञान की उत्पत्ति के पहले तो अशेषज्ञान का अभाव है क्योंकि इन्द्रिय से उत्पन्न होने वाला ज्ञान तो अतीन्द्रिय पदार्थ को विषय ही नहीं करता है। अनुमान अत्यन्त परोक्ष पदार्थ के अगोचर है और आगम भी सामान्य से ही अविशेष अर्थ (अवशेषार्थ) को विषय करता है। अतएव अयोगियों को अशेष-विशेष विषयों का ज्ञान नहीं है। कारण कि इन्द्रियां हेतु और शब्दज्ञान से ही परिच्छेद्य-जानने योग्य विषय हैं। उससे भिन्न अन्य-सूक्ष्मांतरितादि विषय नहीं है ऐसा तो कहना शक्य नहीं है क्योंकि ज्ञेय पदार्थ अनन्त हैं तथा प्रकृति की विवर्त-पर्याय विशेष एवं पुरुषों को आप सांख्य ने भी अनन्त रूप स्वीकार किया है। सांख्य - आगम के बल से उत्पन्न होने वाले स्तोक-थोड़े से भी तत्त्वज्ञान के अभ्यास से जो स्वात्मभाव रूप है ऐसा जो प्रकृति एवं पुरुष का भेदज्ञान है उससे ही पुरुष केवलज्ञानी होता है और वही उस पुरुष का मोक्ष है, पुनः संसार का अभाव हो जाता है एवं अनागत बंध का भी निरोध हो जाता है। जन-यह कथन अयुक्त ही है। थोड़े ज्ञान की अपेक्षा से अज्ञान जो अवशिष्ट रहा वह बहत हो गया उस अज्ञान से बंध का प्रसङ्ग आ जायेगा एवं भविष्यत् के बंध का निरोध असम्भव होने से मोक्ष नहीं हो सकेगा। . सांख्य-प्रकृति एवं पुरुष के भेदज्ञान रूप थोड़े से भी ज्ञान से बहुत से अज्ञान की शक्ति प्रतिहत हो जाती है इसलिये उसको बहुत अज्ञान निमित्त बन्ध सम्भव नहीं है । जैन-यह कथन भी असंगत ही है क्योंकि आपकी प्रतिज्ञा विरुद्ध हो जाती है। जो आपने पहले कहा है कि अज्ञान से निश्चित ही बन्ध होता है, वह कथन विरुद्ध हो जावेगा। सांख्य-अखिलज्ञान के अभाव रूप अज्ञान से ही बन्ध अवश्यम्भावी है किन्तु ज्ञान स्तोक के मिश्रण रूप अज्ञान से बन्ध नहीं होता है। 1 परोक्षे स्वार्था । इति पा० । दि० प्र० । 2 शब्परिच्छेद । इति पा० । दि० प्र० । 3 प्रत्यक्षानुमानागमप्रमाणत्रयप्रमेयः एवार्थोस्ति ततो परोों नास्तीति सांख्यवक्तं शक्यते नहि कज्ज्ञेयमन्तातीतं यतः पुनः प्रधानपर्याय विशेषाणाञ्चानन्तत्वाङ्गीकरणादिति सांस्यसिद्धान्तम् । दि० प्र०। 4 केवलज्ञानभूत् । दि० प्र० । परिपूर्णत्वात् । ब्या० प्र० । सांख्य वक्तुं शक्यते नहि कज्ज्ञेयमन्तातीतं यतः पुनः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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