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अज्ञान से बंध और ज्ञान से मोक्ष के एकांत का खण्डन ] तृतीय भाग
[ ४६१ [ ज्ञानस्याभावरूपादज्ञानाबंधो ज्ञानाद्मोक्ष इति पक्षं निराकरोति जैनाचार्यः। ] प्रसज्यप्रतिषेधे ज्ञानस्याभावोऽज्ञानं, पर्युदासे' ततोन्यन्मिथ्याज्ञानभज्ञानम् । तत्र यदि ज्ञानाभावाद् ध्रु वोवश्यंभावीबन्धः स्यात्तदा केवली न कश्चित्स्यात् ।
[ सांख्यस्यकांतपक्षस्य निराकरणम् । ] सकलविपर्ययरहितं तत्त्वज्ञानमसहाय केवलम्, एवं तत्त्वाभ्यासान्नास्मिन् मे 'नाहमित्यपरिशेषम् । अविपर्ययाद विशुद्ध' केवलमुत्पद्यते ज्ञानमिति वचनात् । तद्योगात्केवलीत्युच्यते । स कथं न 1 स्यादिति चेत्, तदुत्पत्तेः पूर्वमशेषज्ञानाभावात्, करणज
[ ज्ञान के अभाव लक्षण से बन्ध एवं ज्ञान से मोक्ष होता है
इस एकांत पक्ष का जैनाचार्य निराकरण करते हैं। ] अज्ञान का अर्थ प्रसज्य प्रतिषेध करने पर तो ज्ञान का अभाव ही अज्ञान सिद्ध होता है एवं पर्युदास पक्ष लेने पर तो उससे भिन्न मिथ्याज्ञान रूप अज्ञान का अर्थ होता है अर्थात् नत्र समास से दो अर्थ हैं-एक प्रसज्य प्रतिषेध, दूसरा पर्युदास प्रतिबेध । “न ज्ञान, अज्ञानं" इसमें प्रथम पक्ष में तो ज्ञान का अभाव रूप अर्थ होता है। दूसरे पक्ष में ज्ञान से भिन्न ज्ञान रूप अर्थ सिद्ध होता है। उसमें यदि प्रथम पक्ष लेवें कि ज्ञान के अभाव से बंध अवश्यम्भावी है तब तो केवलज्ञानी कोई भी नहीं हो सकेगा।
[ सांख्य के एकांत पक्ष का निराकरण ] सांख्य-सम्पूर्ण विपर्यय से रहित, असहाय-अन्य ज्ञान की सहायता से रहित जो तत्त्वज्ञान है, वही केवलज्ञान है। वह तत्त्वज्ञान के अभ्यास से उत्पन्न होता है। इस जगत् में मेरा कुछ भी नहीं है मैं केवल परिशेष, रहित हूं, इस प्रकार के विपर्यय रहित तत्त्वज्ञान से विशुद्ध केवलज्ञान उत्पन्न होता है, ऐसा महाशास्त्र में कथन है । उसी केवलज्ञान के योग से केवली कहे जाते हैं, पुनः केवली कैसे नहीं हो सकेंगे?
1 प्रसह्य । इति पा० । दि० प्र०। 2 द्वौ नौ हि विनिर्दिष्टौ पर्युदासप्रसज्यको । पर्युदासः सदृग्ग्राही प्रसज्यस्तु निषेधकृत् । दि० प्र० । 3 पर्युदासे तु ततो । इति पा० । ब्या० प्र०। 4 ननु तत् कि केवलं यत् संयोगात् केवली स्यादित्युक्त आह । ब्या०प्र०। 5 इन्द्रियाद्यनपेक्षम् । दि० प्र०। 6 अहं कस्यापि नास्मि मम कोपि नास्ति इत्येवं तत्त्वाभ्यासात् सम्पूर्ण विपरीताभावान्निर्मलमसहायं केवलज्ञानमुत्पद्यत इति सांख्यसिद्धान्तात्तस्य केवलस्य योगाकेवली पुरुष इत्युच्यते स कुतो न स्यादपितु न स्यादिति चेत् स्याद्वाद्याह केवलज्ञानात् प्राक्सकलबोधाभावात्केवली न स्यादिन्द्रियज्ञानमतीन्द्रियग्राह्यपदार्थानामग्राहकमनुमानज्ञानञ्च सर्वथा परोक्षभूतेष्वर्थे एव प्रवर्तकमागमज्ञानं सामान्यतया विशेषार्थागोचरं सांख्याभ्युपगतं प्रमाणत्रयमेतल्लक्षणं यतस्ततः छद्मस्थानामशेषविशेषविषयं ज्ञानं विरुद्धचते । दि० प्र०। 7 अस्याहं किञ्चन नास्मीति । दि० प्र०। 8 सकलविपर्ययरहितम् । दि० प्र०। 9 असहायं ज्ञानमिति वचनादित्यर्थः । दि०प्र०। 10 स कुतो न । इति० पा०। दि० प्र०। 11 स्याद्वादी। दि०प्र० । 12 कारण । इति पा० । दि० प्र० ।
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