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________________ अथ दशमः परिच्छेदः । सर्वं जानंति सर्वज्ञाः केवलज्ञानचक्षुषा । तान् नुमः पूर्णज्ञानाप्त्य, भक्तिरागेण कोटिशः ।। श्रीमदकलङ्कविवृतां समन्तभद्रोक्तिमत्र संक्षेपात् । परमागमार्थविषयामष्टसहस्री प्रकाशयति ॥ 'अज्ञानाच्चे वो बन्धो 'ज्ञेयानन्त्यान्न केवली । 'ज्ञानस्तोकाद्विमोक्षश्चेदज्ञानादबहुतोन्यथा ॥६६॥ अथ दशम परिच्छेद अर्थ-केवलज्ञान रूपी चक्षु के द्वारा जो सर्व लोक-अलोक को जानते हैं वे "सर्वज्ञ" देव कहलाते हैं। हम अपने में पूर्णज्ञान को-केवलज्ञान को प्राप्त करने के लिये उन सर्वज्ञदेव को भक्ति के अनुराग से करोड़ों बार नमस्कार करते हैं । (यह मंगलाचरण श्लोक अनुवादकत्री द्वारा रचित है।) इलोकार्थ-श्री स्वामी समंतभद्र के देवागमस्तोत्र रूप वचन हैं अथवा समंतात्भद्र को करने वाले वचन हैं उनकी श्री भट्टाकलंक देव ने अष्टशती नाम से टीका की है अथवा जो श्री-अंतरंग, बहिरङ्ग लक्ष्मी से सहित, कलंकरहित निर्दोष हैं एवं परमागम के अर्थ को विषय करने वाले हैं उन्हीं को संक्षेप में अष्टसहस्री नाम की टीका प्रकाशित करती है ॥१॥ यदि अज्ञान बंध का हेतु, निश्चित है मानो, तब तो। ज्ञेय पदारथ कहे अनन्तों, कोई केवली कैसे हो ॥ अल्प ज्ञान से यदि मुक्ति हो, तब तो उसका बहु अज्ञान । बंध हेतु होगा निश्चित तब, नहीं किसी को मुक्ति लाभ ।।६६।। कारिकार्थ-यदि सांख्य मत के अनुसार अज्ञान से बन्ध अवश्यंभावी मानों तब तो ज्ञेय पदार्थों के अनन्त होने से कोई केवली नहीं बन सकेगा। यदि एकांत से अल्पज्ञान से ही मोक्ष मानी जावे तब तो अवशिष्ट बहुत से अज्ञान से अन्यथा-बन्ध को प्राप्ति हो जावेगी ॥६६॥ 1 श्रीमद्भट्टाकलङ्कदेवैः उपन्यस्ता व्याख्याताम् । दि० प्र०। 2 विस्तारिताम् । दि० प्र० । 3 वाणीम् । दि० प्र० । 4 जगति । ब्या० प्र०। 5 ग्राह्याम् । दि० प्र०। 6 बसः । दि० प्र० । 7 ननु सांख्यमते पुण्यपापास्रवकारणमज्ञानमेवेति मतमपाकर्तुमाह । न्या० प्र०। 8 न ज्ञानमज्ञानमित्यत्र ना द्विविधः प्रसह्यपर्युदासात्मकस्तत्र प्रथमपक्षे ज्ञानस्याभावो ज्ञानमिति निषेधद्वाराग्रहणं द्वितीयपक्षे ज्ञानादन्यान्मिथ्यात्वज्ञानमज्ञानं तयोर्द्वयोर्मध्येऽत्र पक्षापेक्षयाज्ञानं ग्राह्य तस्मात् । दि० प्र०। 9 वस्तुनः । दि० प्र०। 10 तहि कश्चित्केवली न स्यात् । दि० प्र०। 11 ब्रह्मस्वरूपप्राप्तिः। दि० प्र०। 12 तह्य ज्ञानात्समस्तज्ञानक्षयात्कथं मोक्षो न भवेत् । इत्युक्तेऽल्पज्ञानक्षया. मोक्षो भवति चेतहि समस्तज्ञानक्षयाद्बन्धोपि कथं न भवेदिति तात्पर्यम् । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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