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अनेकान्त की सिद्धि
तृतीय भाग
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न किंचित्पापाय प्रभवति न वा पुण्यततये,
प्रवृद्धद्धां शुद्धि 'समधिवसतो ध्वंसविधुराम् । भवेत् पुण्यायवाखिलमपि विशुद्ध्यङ्गमपरं
मतं पापार्यवेत्युदितमवताद्वो मुनिपतेः ॥१॥
इत्याप्तमीमांसालङ्कृतौ नवमः परिच्छेदः ।
श्लोकार्थ-उत्कृष्ट वृद्धि को प्राप्त क्षायिक लक्षण, अविनश्वरी शुद्धि को प्राप्त हुये मुनियों को कुछ भी सुख और दुःख पाप के लिये अथवा सर्वथा पुण्य के लिये नहीं हैं। तथा विशुद्धि के अंगभूत सभी कारण पुण्य के लिये हैं। तथा विशुद्धि के अंगभूत सभी कारण पुण्य के लिये हैं, एवं संक्लेश के अंगभूत सभी कारण पाप के लिये हैं। इस प्रकार से स्वीकृत-मान्य श्री समन्तभद्रस्वामी के वचन आप लोगों की रक्षा करें।।१।।
पुण्य पापकर्मादि से, शून्य सर्वगुण पूर्ण ।
ऐसे श्रीजिनदेव को, वंदत हो सुखपूर्ण । इस प्रकार श्रीविद्यानंद आचार्यकृत "आप्तमीमांसालंकृति" अपरनाम “अष्टसहस्री" ग्रन्थ में आर्यिका ज्ञानमतीकृत भाषा अनुवाद, पद्यानुवाद, भावार्थ, विशेषार्थ और सारांश सहित इस "स्याद्वादचिंतामणि" मामक टीका में यह नवमां परिच्छेद
पूर्ण हुआ।
1 विशुद्धि प्रति संतिष्ठमानस्य पुंसः शाश्वतीम् । दि० प्र०। 2 पुंसो महामुनीश्वरस्य । दि० प्र०। 3 क्षायिक विशुद्धिव्यतिरिक्तम् । वि०प्र०। 4 यूष्मान् । दि.प्र.15 समन्तभद्रस्वामिनः । दि० प्र० ।
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