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________________ ४५८ ] अष्टसहस्री [ न. प. कारिका ६५ यदि इससे विपरीत कोई कहे कि अपने में दुःख को उत्पन्न करने से पुण्य एवं सुख को उत्पन्न करने से पाप होता है तब तो वीतरागी मुनि त्रिकाल योगादि के अनुष्ठान रूप कायक्लेश उपवासादि से अपने में दुःख उत्पन्न करते हैं इनको पुण्य एवं विद्वान् मुनि तत्त्वज्ञान से संतोष लक्षण सुख की उत्पत्ति अपने में करते हैं । अतः इनको पाप का बंध हो जावेगा। यदि कहो कि इन्हें आसक्ति या इच्छा नहीं है अतः नहीं बंधते हैं तब तो अनेकांत की ही सिद्धि हो जाती है। यदि एकांत ग्रहण करोगे तब तो अकषायी को भी बंध होगा पुन: पुण्य-पाप का अभाव कदाचित् भी न होने से किसी को मुक्ति भी नहीं हो सकेगी। ___तथा जो कोई एकांत से परस्पर निरपेक्ष अपने में अथवा अन्य में सुख उत्पन्न करने से पुण्य एवं दुःख उत्पन्न करने से पाप बंध ही मानते हैं यह उभयकात्म्य भी विरुद्ध है उसी प्रकार से एकांत से अवाच्यता को भी नहीं कह सकते हैं । अतः स्याद्वाद की मान्यता ही श्रेस्यकर है। विशुद्धि के कारण, कार्य और स्वभाव विशुद्धि के अङ्ग हैं। संक्लेश के कारण, कार्य और स्वभाव संक्लेश के अङ्ग हैं। तथा विशुद्धि के निमित्त से होने वाला सुख अथवा दुःख चाहे स्व में हो, चाहे पर में हो, या उभय में हो वही पुण्यास्रव का हेतु है । तथा संक्लेश के निमित्त से होने वाला सुख अथवा दुःख चाहे स्व में हो, चाहे पर में हो, चाहे उभय में हो वही संक्लेश ही पापास्रव का हेतु है। प्रश्न-संक्लेश क्या है एवं विशुद्धि क्या है ? उत्तर-आर्त, रौद्र ध्यान को संक्लेश कहते हैं एवं धर्म-शुक्ल ध्यान को विशुद्धि कहते हैं । उसमें आर्तध्यान के इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोगादि चार भेद हैं तथा रौद्र के भी हिंसानंदी आदि चार भेद हैं और "मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगाबंध हेतवः" ये पांचों ही संक्लेश परिणाम हैं । तथा संक्लेश के अभाव सम्यग्दर्शनादि के निमित्त से विशुद्धि होती है। उस धर्म, शुक्ल रूप विशुद्धि से आत्मा में स्थिरता होना संभव है। तथाहि "विवादापन्न कायादि क्रियायें स्व-पर में सुखदुःख हेतुक संक्लेश को कारण, कार्य एवं स्वभाव रूप ही प्राणियों में अशुभ फलदायी पुद्गलवर्गणाओं के संबंध में हेतु हैं क्योंकि वे संक्लेश के कारण हैं जैसे विषभक्षण आदि।" तथैव "विवादापन्न कायादि क्रियायें स्व-पर सुख-दुःख हेतुक विशुद्धि के कारण, कार्य और स्वभावरूप ही प्राणियों को शुभ फलदायी पुद्गलवर्गणाओं का सम्बन्ध कराने में हेतुक हैं क्योंकि वे विशुद्धि का अंग हैं जैसे पथ्य आहारादि। सप्तभंगी प्रक्रिया--कथंचित् स्व-पर में स्थित सुख-दुःख पुण्यास्रव के हेतु हैं, क्योंकि विशुद्धि के अंग स्वरूप हैं । कथंचित् वे पापास्त्र के हेतु हैं क्योंकि संक्लेश के अंग स्वरूप हैं। कथंचित् उभयरूप हैं इत्यादि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org ..
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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