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अनेकान्त की सिद्धि । तृतीय भाग
[ ४५७ विस्तरतस्तस्यास्रवबन्धाध्याये सुनिरूपितत्वात् । ततः स्यात् स्वपरस्थं 'सुखदुःखं पुण्यात्रवहेतुर्विशुद्ध्यङ्गत्वात् । स्यात् पापास्रवहेतुः; संक्लेशाङ्गत्वात् । स्यादुभयं, क्रमार्पिततद्वयात् । स्यादवक्तव्यं, सहार्पिततवयात् । स्यात् पुण्यहेतुरवक्तव्यं च, स्यात्पापहेतुरवक्तव्यं च, स्यादुभयं चावक्तव्यं च; स्वहेतुविषयात् । इति सप्तभङ्गीप्रक्रिया पूर्ववद्योजनीया।।
१. कथंचित् स्व-पर में स्थित सुख-दुःख पुण्यास्रव के हेतु हैं क्योंकि वे विशुद्धि के अंगस्वरूप हैं।
२. कथचित् वे ही पापास्रव के हेतु हैं क्योंकि वे संक्लेश के अंगस्वरूप हैं। ३. कथंचित् उभयरूप हैं क्योंकि कम से दोनों अर्पित हैं। ४. कथंचित् अवक्तव्य हैं क्योंकि एक साथ दोनों को अर्पणा है।
५. कथंचित् पुण्य हेतु और अवक्तव्य हैं क्योंकि विशुद्धि का अंग एवं सह दोनों विवक्षित हैं।
६. कथंचित् पाप हेतु और अवक्तव्य हैं क्योंकि संक्लेश का अंग होने से एवं साथ ही दोनों अर्पित हैं।
७. कथंचित् उभय और अवक्तव्य हैं क्योंकि कम से विशुद्धि संक्लेश अंगरूप और एक साथ दोनों ही अर्पित हैं। इस प्रकार से सप्तभंगी प्रक्रिया को पूर्ववत् लगा लेना चाहिये।
"पुण्य-पापवाद का सारांश" भाग्य दो प्रकार का है पुण्य और पाप रूप । वही प्राणियों के सुख-दुख का कारण है । “सद्वेद्यशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यं, इतरत् पापं" इस प्रकार के कर्म पुण्य और पाप दो रूप हैं। यदि कोई एकांत से कहे कि पर में दुःख उत्पन्न करने से पाप एवं सुख उत्पन्न करने से पुण्य बंध होता है तब तो अचेतन दूध, घी आदि सुख उत्पन्न करते हैं एवं विष-कंटक आदि दुःख उत्पन्न करते हैं तो वे भी पुण्य-पाप बंध जावेंगे । यदि कहो कि चेतन ही बंध के योग्य है अचेतन नहीं तो वीतरागी मुनियों को भी बंध को प्राप्त होने लगेगा। यदि कहो कि वीतरागी के मनोभिप्राय नहीं है तो पुनः पर में सुख-दुःख उत्पन्न करने से ही पुण्य-पाप हो यह एकांत कहाँ रहा ?
1 कर्तृ । दि० प्र० । 2 स्वपरस्थं सुखदुःखमिति संबन्धः सप्तस्वपि भङ्गषु कार्य == विशुयंगसंक्लेशाङ्गत्वादितिक्रमविवक्षितत्वात् स्यात्स्वपरस्थं सुखदुःखं पुण्यपापहेतुर्भवति । दि० प्र०। 3 विशेषादिति । पा० । दि०प्र०।
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