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अष्टसहस्री
[ न०प० कारिका ६५ शुभः पुण्यस्याशुभ: पापस्ये'त्यपि न विरुद्धं, कायादियोगस्यापि तत्कारणकार्यत्वेन' संक्लेशत्वव्यवस्थितेः । एतेन तदभावे विशुद्धिः सम्यग्दर्शनादिहेतुः धर्म्यशुक्लध्यानस्वभावा 'तत्कार्यविशुद्धिपरिणामात्मिका च व्याख्याता', तस्यामेवात्मन्यवस्थानसंभवात् । तदेवं विवादाध्यासिताः कायादिक्रियाः स्वपरसुखदुःखहेतवः संक्लेशकारणकार्यस्वभावा': प्राणिनामशुभफलपुद्गलसंबन्धहेतवः संक्लेशाङ्गत्वाद्विषभक्षणादिकायादिक्रियावत् । तथा विवादापन्नाः कायादिक्रिया: स्वपरसुखदुःखहेतवो विशुद्धिकारणकार्यस्वरूपाः प्राणिनां शुभफलपुद्गलसंबन्धहेतवो', विशुद्ध्यङ्गत्वात् 1 पथ्याहारादिकायादिक्रियावत् । ये शुभाशुभफलपुद्गलास्ते पुण्यं पापं च कर्मानेकविधम् । इति संक्षेपात्सकलशुभाशुभकर्मास्त्रवबन्धकारणं सूचितं भवति,
भी उसके कारण के कार्य होने से संक्लेश रूप से मान्य हैं। इसी कथन से उस संक्लेश के अभाव में विशुद्धि होती है, वह सम्यग्दर्शनादि के निमित्त से होती है एवं धर्मध्यान, शुक्लध्यान स्वभाव वाली है उसके कार्यरूप विशुद्धि परिणामात्मक है ऐसा कह दिया गया है, क्योंकि उस विशुद्धि के होने पर ही आत्मा में अवस्थान स्थिर होना संभव है । इस प्रकार से "विवादापन्न कायादि क्रियायें स्वपर में सुख, दुःख हेतुक संक्लेश की कारण, कार्य एवं स्वभाव वाली ही प्राणियों को अशुभ फलदायी पुद्गल वर्गणाओं के सम्बन्ध में हेतु हैं, क्योंकि वे संक्लेश का अंग-साधन हैं। जैसे विषभक्षण आदि कायादि क्रियायें अशुभफलदायी हैं।"
उसी प्रकार से, "विवादापन्न कायादि क्रियायें स्व-पर सुख, दुःख हेतुक विशुद्धि के कारण, कार्य एवं स्वभाव वाली प्राणियों को शुभफलदायी पुद्गलवर्गणाओं के सम्बन्ध कराने में हेतुक हैं, क्योंकि वे विद्धि का अंग हैं। जैसे पथ्य आहारादि रूप कायादि क्रियायें शभफलदायी हैं।" जो शभ, अशुभफलदायी पुद्गल वर्गणायें है वे पुण्य और पाप रूप अनेक विध कर्मरूप हैं। इस प्रकार से संक्षेप से सम्पूर्ण शुभ-अशुभ कर्मों के आस्रव और बन्ध के कारण सूचित किये गये हैं तथा विस्तार से उनका प्रकरण आस्रव एवं बंध की अध्याय में (तत्त्वार्थ-सूत्र की छठी, सातवी, आठवीं अध्याय में) सम्यक् प्रकार से निरूपित किया गया है । अव सप्तभंगो प्रक्रिया को दिखाते हैं
1 कायादियोग आतंरौद्रयोः कारणकार्यत्वेन कृत्वा संक्लेश एवं घटते । दि० प्र० । 2 एतेन संक्लेशाभावः विशद्धिकारणं सम्यग्दर्शनादिकं विशुद्धिकार्यं धर्मशुक्लध्यानद्वयं विशुद्धिस्वभावः । संक्लेशस्वरूपनिरूपणग्रन्थेन । दि० प्र०। 3 तयोःधर्म शुक्लध्यानयोः कार्य विशुद्धिपरिणामः स आत्मा स्वभावो यस्या सा तथोक्ता विशुद्धिः तस्यामेव विशुद्धौ सत्यामात्मन आत्मनि व्यवस्थितिः संभवति । दि० प्र० । 4 व्याख्यानादिति । पा० । दि०प्र० । 5 कार्यकारणस्वभावाः । इति पा० । दि० प्र०। 6 साध्यमिदम् । दि० प्र० । 7 विषलक्षणादिक्रियायामपि पूर्वोक्तसंक्लेशकार्यकारणस्वभावात्मकसंक्लेशाङ्गत्वस्य विषाख्याशुभफल पुद्गलसंबन्धहेतुत्वस्यापि भावात् न साध्यवैकल्यमुदाहरणस्य ननु पूर्वसुखदुःखयोविशुद्धिसंक्लेशाङ्गयोः पुण्यपापहेतुमुक्तमिदानीं कायादिक्रियाय स्तदुपसंद्रियते अतः पूर्वापरविरोध इति न शकनीयं सुखदुःखयोः कायादिक्रियात्मकत्वेनात्रापि तयोरेव कथनात् । दि० प्र०। 8 साध्यमेतत् । दि० प्र०। 9 साध्यमिदम् । ब्या० प्र० । 10 प्रत्याहारादि । इति पा० । दि० प्र०।
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