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अनेकान्त की सिद्धि ]
तृतीय भाग
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स्तदभावो विशुद्धिरात्मनः स्वात्मन्यवस्थानम् । तत्रार्तध्यानं चतुर्विधं, 'आर्तममनोज्ञस्य संप्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वारो, विपरीतं ' मनोज्ञस्य, वेदनायाश्च निदानं चे 'ति सूत्रचतुष्टयेन तथा प्रतिपादनात् । रौद्रध्यानं चतुर्विधं हिंसादिनिमित्तभेदात् 'हिंसानृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमित्यत्र सूत्रे प्रकाशनात् । 'मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतव: ' त एव संक्लेशपरिणामा' इति न विरुध्येते 'तेषामार्तरौद्रध्यान परिणामकारणत्वेन संक्लेशाङ्गत्ववचनात् ', तत्कार्यहिंसादिक्रियावत्' । 'कायवाङ्मनः कर्म योग : ' स आस्रवः,
है । उसमें आर्तध्यान चार प्रकार का है- अमनोज्ञ· अनिष्ट का संयोग हो जाने पर उसके वियोग के लिये बार-बार चितवन करना अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान है । इससे विपरीत - इष्ट का वियोग हो जाने पर उसके संयोग के लिये बार-बार चितवन करना इष्ट वियोगज आर्तध्यान कहलाता है । वेदना के उत्पन्न होने पर उसके दूर होने का बार बार चितवन करना वेदना जन्य आर्तध्यान है। तथा नहीं प्राप्त हुए ऐश्वर्य की प्राप्ति का संकल्प करना निदान नाम का आर्तध्यान कहलाता है । इस प्रकार से चार सूत्रों के द्वारा श्री उमास्वामी आचार्य ने तत्त्वार्थसूत्र महाशास्त्र में प्रतिपादन किया है ।
रौद्रध्यान भी चार प्रकार का है, वह हिंसादि के निमित्त से होता है। हिंसा करना, असत्य बोलना, चोरी करना एवं विषयों का संरक्षण करना ये रौद्रध्यान हैं । ऐसा सूत्र में प्रकाशित किया गया है । " मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगाबंध हेतवः " मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पांच बंध के हेतु हैं । ये ही संक्लेश परिणाम कहलाते हैं और यह विरुद्ध भी नहीं हैं अर्थात् ये आर्त, रौद्रध्यान और बंध के हेतु मिथ्यादर्शनादि विरुद्ध भी नहीं हैं, क्योंकि ये ही आर्त, रौद्रध्यान रूप परिणाम के कारण होने से संक्लेश के अंग हैं ऐसा वचन है । जैसे संक्लेश हेतुक कार्य एवं हिसादि क्रियायें संक्लेश का अंग हैं । " कायवाङ्गमनः कर्मयोगः, स आस्रवः, शुभः पुण्यस्याशुभ: पापस्य " मन, वचन और काय की क्रिया योग है । वही आस्रव है, पुण्ययोग से शुभ आस्रव और पापयोग से अशुभ आश्रव होता है । इस प्रकार से भी सूत्र वचन विरुद्ध नहीं है, क्योंकि कायादि योग
1 पूर्वोक्तलक्षणाद्विपरीत कोर्थ: मनोज्ञस्य इष्टस्य वियोगे सति तत्संयोगापस्मृत्यनुबन्धः मुहुर्मुहः स्मरणं द्वितीयमार्त्त स्यात् == पीडायाश्च संयोगवियोगाय स्मृत्यनुबन्धस्तृतीयमार्तम् = तपश्चरण। दिना भोगाद्याकांक्षणं निदानं चतुर्थमार्त स्यात् । दि० प्र० । 2 स्मृतिसमन्वाहारः । इति पा० । 3 राज्याभिलाषः । दि० प्र० । 4 चतुविधत्वेन । दि० प्र० । 5 नत्वार्त रौद्रपरिणामः । व्या० प्र० । 6 ते मिथ्यादय आर्त्तरौद्रध्यानपरिणामस्य कारणत्वात् संक्लेशांगा एव भवन्ति = यथार्त्तरौद्रपरिणामस्य कार्यं हिंसादिकं तथा कारणं मिथ्यात्वादयः । दि०प्र० । 7 मुख्यतः संक्लेशाङ्गरुपात - रौद्रपरिणामकारणत्वेन संक्लेशावयवभूतानि मिथ्यादर्शनादीन्यार्त्त रौद्रपरिणामग्रहणेन गृहीतान्येव भाष्यकारैरित्यभिप्रायः संक्लेशाङ्गत्ववचनादित्यत्र वर्तमानः संक्लेश्यंगशब्दो न कारिकास्थः । दि० प्र० । 8 आर्त्तरौद्र कार्य हिसाक्रियाया यथा संक्लेशावयवत्वम् । दि० प्र० । 9 मिथ्यादर्शनादीनां संक्लेशावयवत्वमुक्ताशुभयोगस्य सूत्रोदितस्य तत्प्रतिपादनार्थमाह कायवाङ्मन इति । दि० प्र० ।
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