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________________ ४५४ ] अष्टसहस्री [ न० ५० कारिका ६५ [ विशुद्धिसंक्लेशपरिणामो एव पुण्यपापबंधयोहेतू भवतः । ] आत्मनः परस्य वा सुखदुःखयोविशुद्धिसंक्लेशाङ्गयोरेव पुण्यपापास्रवहेतुत्वं, न चान्यथातिप्रसङ्गात् । विशुद्धिकारणस्य विशुद्धिकार्यस्य विशुद्धिस्वभावस्य वा विशुद्ध्यङ्गस्य संक्लेशकारणस्य संक्लेशकार्यस्य संक्लेशस्वभावस्य वा संक्लेशाङ्गस्य च, सुखस्य दुःखस्य वा तदुभयस्य वा स्वपरोभयस्थस्य पुण्यास्रवहेतुत्वं पापासवहेतुत्वं च यथाक्रमं प्रतिपत्तव्यम् । न 'चान्यथा', यथोदितप्रकारेणातिप्रसङ्गस्येष्टविपरीतेपि पुण्यपापबन्धप्रसङ्गस्य दुनिवारत्वात् । [ विशुद्धिसंक्लेशयोः कि लक्षणं ? इति प्रश्ने स्पष्टीकुर्वति जैनाचार्याः । ] कः पुनः संक्लेशः का वा विशुद्धिरिति चेदुच्यते,---आर्तरौद्रध्यानपरिणामः संक्लेश परिणाम नहीं है, तब तो वे व्यर्थ ही हैं अर्थात् पुण्य, पाप का आस्रव हो ही नहीं सकता है ऐसा आप अर्हत्प्रभु का सिद्धान्त है ।।६५॥ [ विशुद्धि और संक्लेश परिणाम ही पुण्य-पाप बंध में कारण हैं। ] अपने अथवा पर के विशुद्धि एवं संक्लेश के निमित्तभूत सुख और दु.ख ही पुण्यात्रव और पापास्रव के हेतु हैं अन्यथा नहीं हैं, नहीं तो अतिप्रसंग दोष आ जावेगा। विशुद्धि के कारण, विशुद्धि के कार्य अथवा विशुद्धि के स्वभाव विशुद्धि के अंग कहलाते हैं। संक्लेश के कारण, संक्लेश के कार्य अथवा संक्लेश स्वभाव संक्लेश के अंग हैं । विशुद्धि के निमित्त से होने वाले सुख अथवा दुःख अथवा दोनों चाहे अपने में हों, चाहे पर सम्बन्धी हों वे ही पुण्यास्रव के हेतु हैं। संक्लेश के निमित्त से होने वाले सुख अथवा दुःख या दोनों ही चाहे स्व में हों चाहे पर में हों वे पापास्रव के हेतु हैं ऐसा समझना चाहिये, अन्य प्रकार से नहीं है। उपर्युक्त (अचेतन, अकषाय, वीतराग मुनि के बंध रूप) प्रकार से अतिप्रसंग हो जाने से विपरीत में भी पुण्य एवं पाप का बंध दुनिवार ही हो जावेगा। अर्थात् अचेतन कंटक आदि और अकषाय मुनि भी बंध को प्राप्त हो जावेंगे। [ विशुद्धि और संक्लेश का क्या लक्षण है ? ऐसा प्रश्न होने पर जैनाचार्य स्पष्ट करते हैं। ] प्रश्न- संक्लेश क्या है एवं विशुद्धि क्या है ? उत्तर- आर्त, रौद्रध्यान रूप परिणाम को संक्लेश कहते हैं। उन आर्त-रौद्र के अभाव से होने वाले धर्म-शुक्लध्यान को विशुद्धि कहते हैं, आत्मा का स्वात्मा में अवस्थान होना ही विशुद्धि 1 अचेतनाकषायौ च बध्येयाताम् । ब्या० प्र०। 2 तासः। ब्या०प्र० । 3 न चान्यथेत्येतस्य कोर्थः यथोदितप्रकारेण विशद्धिसंक्लेशाङ्ग नव पूण्यपापबन्धः=विशुद्धिसंक्लेशाङ्गभावेपि बन्धो भवति चेत्तदातिप्रसङ्गः । दि० प्र०। 4 नान्यथेति कुतः । ब्या०प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org ,
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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