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अनेकांत की सिद्धि 1 तृतीय भाग
[ ४५३ प्रस्तुतकान्तद्वयसिद्धान्ते' व्याहतेरनभिधेयतायामनभिधेयाभिधानविरोधात् कथंचिदेवेति युक्तम् । नहि स्वस्मिन्नन्यस्मिन्वा सुखात् दुःखाच्च पुण्यमेव पापमेव वा तदुभयमेव चेति वदतामव्याहतिः संभवति नापि तथाऽवाच्यतैकान्तेऽवाच्यमित्यभिधानमविरुद्धं, यतः स्याद्वादो न युक्तः स्यात् ।
कथं स्याद्वादे पुण्यपापास्रवः स्यादित्याहुः
'विशुद्धिसंक्लेशाङ्ग" चेत् स्वपरस्थं सुखासुखम् ।
पुण्यपापासवो' युक्तो न 11व्यर्थस्तवार्हतः ॥६५॥ प्रस्तुत एकान्तद्वय का सिद्धान्त स्वीकार करने का विरोध आता है। 'अवाच्यता' का एकांत स्वीकार करने पर तो 'अवाच्य' इस शब्द का ही विरोध हो जाता है अत: 'कथंचित्' ही मानना इस प्रकार से युक्त है। अपने में अथवा अन्य में सुख देने से पुण्य ही होता है और दुःख उत्पन्न करने से पाप ही होता है अथवा वे दोनों ही एकान्त से होते हैं, ऐसा कहने वालों के यहाँ भी अविरोध संभव नहीं है। उसी प्रकार से अवाच्यतैकांत को स्वीकार करने पर तो “अवाच्य” इस तरह का कथन भी अविरुद्ध नहीं हो सकता है कि जिससे स्याद्वाद युक्त न हो सके अर्थात् स्याद्वाद की मान्यता ही युक्ति युक्त है।
उत्थानिका-पुन: स्याद्वाद की मान्यता में पुण्य और पाप का आस्रव कैसे माना गया है ? श्री समन्तभद्राचायवर्य इस प्रश्न का उत्तर देते हुए अगली कारिका में कहते हैं
यदी स्व-पर का सुख उनके, परिणाम विशद्धी में हेतू । तथा स्व-पर का दु:ख उनके, संक्लेश भाव में यदि हेतू ।। तब ये सुख-दुःख पुण्य-पाप के, आस्रव में हेतु बनते ।
यदि ऐसा नहिं तब तो अहंन् ! तव मत में यह व्यर्थ कहे ॥६॥ कारिकार्थ-यदि अपने सुख-दुःख एवं पर सम्बन्धी सुख, दुःख विशुद्धि एवं संक्लेश के निमित्त से होते हैं तब तो उनसे ही पुण्य और पाप का आस्रव होना युक्त ही है। यदि विशुद्धि और संक्लेश रूप
1 प्रारब्ध । दि० प्र० । 2 परस्मिन् स्वस्मिन् च दुःखात् सुखाच्च । दि० प्र०। 3 स्वस्मिन्सुखदुःखाभ्यां पापपुण्यबन्धौ परस्मिन् सुखदुःखाभ्यां पुण्यबन्धी एकान्ततो भवत इति वदतां परवादिनामव्याहतिर्नहि संभवति व्याहतिविरोध एव । दि० प्र० 14 अविरोधो न संभवति । दि० प्र० । 5 अवतारिका । दि० प्र०। 6 द्वन्द्वः । ज्या० प्र० । 7 भवतीत्यध्याहारः । ब्या० प्र०। 8 स्वस्मिन् परस्मिन् वा संस्थितम् । ब्या० प्र० । 9 तहि । दि० प्र०। 10 पुण्यपापयोरात्मनि आश्रवः । ब्या प्र०। 11 यदि न युक्तः पुण्यपापायाश्रवः । फलहीनत्वात् । मते। दि० प्र०। 12 अर्हतो भगवतस्तव मते स्वस्थं परस्थं स्वपरस्थं सुखदु.खं विशुद्धिसंक्लेशपूर्वक यदि स्यात् तदा पुण्यपापाश्रवो घटते न चेदिति स्वपरस्थं सुखासुखं विशुद्धिसंक्लेशकारणं यदि न भवति तदा पुग्यपापाश्रवो व्यर्थः कस्मात् स्थित्यनुभागबन्धरहितत्वात् । दि० प्र० ।
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