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________________ अथ नवमः परिच्छेदः। 卐-- पुण्यपापप्रहंतारोऽप्यर्हन्तः पुण्यराशयः । तीर्थकृत्पुण्यदातारः, स्तुमस्तान् स्वात्मशुद्धये ।। सम्यगवबोधपूर्व पौरुषमपसारिताखिलानर्थम् । दैवोपेतमभीष्टं सर्व संपादयत्याशु ॥१॥ पापं ध्रुवं परे दुःखात् पुण्यं च सुखतो यदि । 'अचेतनाकषायौ च बध्येयाता' निमित्ततः ॥२॥ अथ नवम परिच्छेद अर्थ-पुण्य और पाप कर्मों के नष्ट करने वाले होते हुए भी जो पुण्य की राशि स्वरूप हैं और तीर्थंकर जैसे पुण्य बन्ध को देने वाले हैं, अपनी आत्मा की शुद्धि के लिए हम उन जिनेन्द्रदेव की स्तुति करते हैं । (यह मंगलाचरण श्लोक अनुवादकी द्वारा रचित है) श्लोकार्थ-अखिल अनर्थों से रहित, सम्यग्ज्ञानपूर्वक हुआ पुरुषार्थ, भाग्य से रहित ही अभीष्ट है और वही शीघ्र ही सम्पूर्ण कार्य को सिद्ध करता है ॥१॥ यदि पर को दुःख देने से ही, पाप बंध सुख से हो पुण्य । कंटक आदि अचेतन को तब, पाप बंध हो पय को पुण्य । यदि चेतन नहिं बंधते हैं तब, अकषायी मुनि गतरागी। जन को सुख-दु.ख के निमित्त से, पुण्य पाप के हों भागी ॥१२॥ कारिकार्थ-यदि दूसरे प्राणी में दुःख उत्पन्न करने से एकांततः पाप का बंध तथा सुख देने से पुण्य का बंध माना जायेगा, तब तो अचेतन पदार्थ एवं वीतरागी भी निमित्त से पुण्य-पाप रूप बंध को प्राप्त हो जावेंगे ॥६२॥ 1 कर्तृ । ब्या० प्र० 1 2 कर्मभूतम् । दि० प्र०। भव्यानाम् । दि० प्र० 1 4 तदा । ब्या० प्र०। 5 तृणकंटकादयः । ब्या० प्र०। 6 वीतराग । ब्या० प्र०।7 पापपुण्याभ्यां बद्धौ भवेताम् । दि० प्र०18 परस्मिन् सुखदुःखोत्पादनलक्षणनिमित्ततः । दि०प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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