SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 527
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४८ 1 अष्टसहस्री [ अ०प० कारिका ६१ देवैकान्तादिपांशु-प्रसरनिर सनोद्भूत सामर्थ्यवृत्तिः, सन्मार्गव्यापिनीयं पवनततिरिवाज्ञानखेदं' हरन्ती। बन्धं प्रध्वंसमद्धा सकलमपि बलादानयन्ती नितान्तं, नीतिः स्याद्वादिनीद्धा दृगवगमभृतां निवृति वः प्रदेयात् ॥१॥ इत्याप्तमीमांसालंकृतावष्टमः परिच्छेदः । श्लोकार्थ-भाग्य एकांत, पुरुषार्थ एकांत आदि रूप धूलि के प्रसर को निरसन करने की सामर्थ्य वाली पवन के समूह के समान यह स्याद्वाद नीति है, सन्मार्ग में व्याप्त है, अज्ञान रूपी खेद को हरण करने वाली है, शीघ्र ही बलपूर्वक प्रकृति, स्थिति आदि सम्पूर्ण कर्मबन्ध को अतिशय रूप से प्रध्वंस करने वाली है, सतत वृद्धि को प्राप्त होती हुई ऐसी यह स्याद्वाद नीति आप सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रधारी महापुरुषों को निर्वृति-मोक्ष को प्रदान करे। दोहा-रत्तत्रय पुरुषार्थ से, प्राप्त किया निजराज्य । नमूं नमूं जिनदेव को, मिले स्वात्मसाम्राज्य ।। इस प्रकार श्री विद्यानन्द आचार्यकृत "आप्तमीमांसालंकृति" अपरनाम "अष्टसहस्री" ग्रन्थ में आर्यिका ज्ञानमती कृत भाषा अनुवाद, पद्यानुवाद, भावार्थ, विशेषार्थ और सारांश सहित इस "स्याद्वादचितामाणि" नामक टीका में यह आठवां परिच्छेद पूर्ण हुआ । ** 1 एव । ब्या० प्र०। 2 रेणुद्वयोः स्त्रियां धूलि. पाशुर्वा न द्वयोरजः। दि० प्र०। 3 भावा । दि० प्र०। 4 प्रकटीभूत । दि० प्र०। 5 बसः। दि. प्र.। 6 नक्षत्रमार्गाकाशव्यापिनीर्थ । सन्नक्षत्रतारकं तारकाश्चेति हला. युधोथवा मोक्षमार्गव्यापिनी । दि० प्र०। 7 अज्ञानमेव खेद:=झठिति । वि.३०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy