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________________ अनेकान्त की सिद्धि ] तृतीय भाग [ ४४७ जावेंगे क्योंकि पुरुषार्थ तो सभी प्राणियों में पाया जाता है। यदि कहो पुरुषार्थ दो प्रकार का है मिथ्याज्ञानपूर्वक और सम्यग्ज्ञानपूर्वक । उनमें से दूसरा पुरुषार्थ सफल ही है । अर्थात् दृष्टकारण सामग्री से सहित पुरुषार्थ यदि व्यभिचारी है तो अदृष्ट-पुण्य, पाप कारण सामग्री से सहित सम्यग्ज्ञानपूर्वक पुरुषार्थ असफल नहीं होता है । इस पर भी जंनाचार्य कहते हैं कि अल्पज्ञ जनों को यह निर्णय नहीं हो सकता है कि यह पुरुषार्थ अदृष्ट सहाय निमित्तक है । वह अनुमानादि से भी जाना नहीं जाता है फिर भी हम पूछते हैं कि वह अदृश्य कारण समूह, कारण की शक्ति विशेष है या पुण्य-पाप विशेष : यदि प्रथम पक्ष लेवें तो उसमें व्यभिचार आता है । द्वितीय पक्ष में तो भाग्य की सहायता सहित ही पुरुषार्थ फलदायी हुआ, अतः भाग्य निमित्तक पुरुषार्थ से ही कार्य सिद्धि सुघटित है एवं दैव के परिज्ञान से रहित भी कदाचित् फल प्राप्ति देखी जाती है अतः सम्यग्ज्ञानपूर्वक पुरुषार्थं कांत अथवा पुरुषार्थंकांत मात्र भी श्रेयस्कर नहीं है । देव और पौरुष का ऐकास्त्य मीमांसक ने माना है वह भी ठीक नहीं है क्योंकि परस्पर में विरोध आता है । 'अवाच्यता' को एकांत से मानने पर स्ववचन विरोध आता है । अतएव स्याद्वाद नीति का स्पष्टीकरण करते हैं बिना विचारे अनायास ही सिद्ध हुये अनुकूल अथवा प्रतिकूल कार्य भाग्यकृत हैं क्योंकि उनमें बुद्धिपूर्वक की अपेक्षा नहीं है वहाँ पुरुषार्थ अप्रधान है एवं भाग्य प्रधान है। विचार बुद्धिपूर्वक सिद्ध हुये कार्यं पुरुषार्थकृत हैं कारण यहाँ बुद्धिपूर्वक की अपेक्षा विद्यमान है । यहाँ भाग्य गौण और पुरुषार्थ प्रधान है। इन दोनों में से किसी एक के अभाव में कार्यसिद्धि असम्भव है अतः ये भाग्य एवं पुरुषार्थ परस्पर अपेक्षाकृत हैं। एक-दूसरे की सहायता से ही ये दोनों कार्यों को सिद्ध करने में समर्थ होते हैं । सप्तभगी प्रक्रिया - कथंचित् सभी कार्य दैवकृत हैं क्योंकि अबुद्धिपूर्वक अपेक्षित हैं । कथंचित् सभी कार्य पुरुषार्थकृत हैं क्योंकि बुद्धिपूर्वक से विवक्षित हैं । कथंचित् उभय रूप सभी कार्य हैं क्योंकि क्रम की विवक्षा है । सह विवक्षा से कथंचित् अवक्तव्य हैं । कथंचित् दैवकृत अवक्तव्य हैं । कथंचित् पुरुषार्थकृत अवक्तव्य हैं । कथंचित् उभय अवक्तव्य ही हैं क्योंकि क्रम एवं अक्रम से दोनों की अर्पणा है । इस प्रकार से एकांत का नाशकर स्याद्वाद शासन जयशील होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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