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________________ ४४६ ] अष्टसहस्री अ०प० कारिका ११ "दैव एवं पुरुषार्थ के एकांत निरसन का सारांश" पूर्वपक्ष- कोई मीमांसक भाग्य से ही सभी कार्य की सिद्धि मानते हैं। चार्वाक पुरुषार्थ से ही मानते हैं तथा कोई विशेष मीमांसक स्वर्गादिकों को भाग्य से एवं कुछ कृषि आदि को पुरुषार्थ से मानने हैं। कोई-कोई दोनों को साधन रूप से अवक्तव्य ही मानते हैं। उनमें सर्वप्रथम भाग्यवाद का निराकरण करते हुये आचार्य कहते हैं। उत्तरपक्ष-यदि भाग्य से ही सभी कार्यों कि सिद्धि मानी जावे, तब तो पुण्य, पाप रूप आचरण के द्वारा भाग्य का निर्माण भी कैसे होगा ? यदि पूर्व के भाग्य से ही भाग्य को मानों तब तो पूर्व-पूर्व के भाग्य से उत्तरोत्तर भाग्य बनते ही रहेंगे पुनः भाग्य का अभाव होने से मोक्ष कभी भी नहीं हो सकेगा तब मोक्ष के लिये पुरुषार्थ भी निष्फल ही हो जावेगा। - यदि आप मीमांसक कहें कि पुरुषार्थ से दैव का निर्मूल नाश हो जाता है । अतः मोक्ष की प्राप्ति के लिये पुरुषार्थ सफल ही है पुनः आपने दैव से ही कार्यसिद्धि मानी है सो कहां रहा ! यदि आप कहें कि मोक्ष का कारणभूत पुरुषार्थ भी दैवकृत ही है अतः परम्परा से मोक्षसिद्धि भाग्यकृत ही रही तो भी प्रतिज्ञा हानि दोष आता ही है। यदि कहो पुरुषार्थ से ही वैसा भाग्य बना है तो, आपका भाग्यकांत नहीं टिकता है । यदि कहो प्रयत्न न करने वाले के सभी इष्टानिष्ट भाग्यकृत हैं एवं प्रयत्नशील के सभी कार्य पुरुषार्थ से हैं सो भी ठीक नहीं है । खेती आदि कार्य एक साथ करने वाले अनेक मनुष्य हैं, किन्तु किसी को कार्य की सिद्धि एवं किसी को असिद्धि देखी जाती है अतः पुण्य, पाप भी उन कार्यों की सिद्धि में निमित्त सिद्ध ही हैं । तथैव स्वयं प्रयत्न करने वाले मनुष्यों के भी कार्य की सिद्धि, असिद्धि देखी जाती है । पुरुषार्थ के अभाव में भी इष्ट, अनिष्ट अथवा सुख, दुःख का होना देखा जाता है, किन्तु बिना पुरुषार्थ के उनका अनुभव नहीं हो सकता है अतः सर्वत्र दोनों ही निमित्त रूप हैं, इनमें से किसी एक का भी अभाव करने पर कुछ भी हो नहीं सकता है। मोक्ष भी परमपुण्यातिशय रूप भाग्य तथा चारित्र विशेषात्मक पुरुषार्थ से ही सम्भव है इसलिये भाग्यकांत पक्ष भी श्रेयस्कर नहीं है। पुरुषार्थंकांतपक्ष-यदि चार्वाक पुरुषार्थ से ही कार्य की सिद्धि मानते हैं तब तो पुरुषार्थ भाग्य से कैसे होगा? यदि कहो, जैसी भवितव्यता होती है वैसी ही बुद्धि हो जाती है, वैसा ही वैसा ही व्यवसाय होता है और वैसे ही सहायक मिल जाते हैं। अतः सभी बुद्धि व्यवसायादि पुरुषार्थ से ही हैं तथा पुरुषार्थ भी पुरुषार्थ से ही है तब तो सभी के सभी कार्य सिद्ध हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org ,
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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