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अनेकांत की सिद्धि । तृतीय भाग
[ ४४५ कारस्याप्रधानत्वात्' दैवस्य प्राधान्यात् । तद्विपरीतं पौरुषापादितं बुद्धिपूर्वव्यपेक्षानपायात्, तत्र देवस्य गुणभावात् पौरुषस्य प्रधानभावात्, न 'पुनरन्यतरस्याभावात् अपेक्षाकृतत्वात्तव्यवस्थायाः । तथापेक्षानपाये परस्परं सहायत्वेनैव देवपौरुषाभ्यामर्थसिद्धिः । इति स्यात्सर्वं दैवकृतमबुद्धिपूर्वापेक्षातः । स्यात् पौरुषकृतं बुद्धिपूर्वापेक्षातः स्यादुभयकृतं क्रमार्पितत
वयात् । स्यादवक्तव्यं सहार्पितवयात् । स्यादेवकृतावक्तव्यमबुद्धिपूर्वापेक्षया सहार्पिततद्वयात् । स्यात्पौरुषकृतावक्तव्यं बुद्धिपूर्वापेक्षया सहापिततद्वयात् । स्यात्तदुभयावक्तव्यमेव' क्रमेतरापिततवयात् । इति सप्तभङ्गीप्रक्रिया पूर्ववत् ।।
प्रधान है। उससे विपरीत-विचार बुद्धि पूर्वक कार्य पुरुषार्थ कृत है कारण यहां बद्धिपूर्वक की अपेक्षा विद्यमान है । यहां भाग्य गौण है एवं पुरुषार्थ प्रधान है किन्तु इन दोनों में से किसी एक का अभाव ही मान लेने से जैसा नहीं होता है । क्योंकि यह देव एवं पुरुषार्थ व्यवस्था परस्पर अपेक्षाकृत है। .
इस प्रकार से अपेक्षा का अभाव न करके परस्पर में एक-दूसरे की सहायता से ही भाग्य एवं पुरुषार्थ इन दोनों के द्वारा प्रयोजन सिद्ध होता है । इसलिये
कथंचित् सभी कार्य दैवकृत हैं क्योंकि अबुद्धिपूर्वक अपेक्षित हैं। कथंचित् सभी कार्य पुरुषार्थ कृत हैं क्योंकि बुद्धिपूर्वक विवक्षित हैं । कथंचित् उभयकृत हैं क्योंकि क्रम से दोनों की अर्पणा है । कथंचित् अवक्तव्य हैं क्योंकि युगपत् दोनों की अर्पणा है ।
कथंचित् दैवकृत, अवक्तव्य हैं क्योंकि अबुद्धिपूर्वक अपेक्षा एवं सहार्पित दोनों की अपेक्षा है।
कथंचित् पुरुषार्थ कृत अवक्तव्य हैं क्योंकि बुद्धिपूर्वक की अपेक्षा एवं युगपत् दोनों की अपेक्षा है। कथंचित् उभय अवक्तव्य ही हैं क्योंकि क्रम एवं अक्रम से दोनों की अर्पणा की गई है।
इस प्रकार से सप्तभंगी प्रक्रिया पूर्ववत् समझना।।
1 पुरुषप्रयत्नपौरुषस्येति यावत् । दि० प्र० । 2 सद्भावात् । दि० प्र०। 3 द्वयोर्दैवपौरुषयोर्मध्ये एकतरस्याभावात् । इष्टानिष्टसिद्धिर्न स्यात् कस्मात्तयोरिष्टानिष्टयोर्व्यवस्थितिः देवपुरुषयोः सापेक्षत्वे नैव कृता वर्तते । दि० प्र०। 4 देवकृतं पौरुषेवापादितमिति साध्यम् । दि० प्र०। 5 देवपौरुषकृतयोः । ब्या० प्र०। 6 सापेक्षत्वे सति । दि० प्र०। देवपौरुषोभय । ब्या० प्र०।
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