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________________ ४४४ ] अष्टसहस्त्री [ अ० प० कारिका ६१ दैवेतरयो:' सहैकान्ताभ्युपगमे' व्याघातादवाच्यतायां च स्ववचनविरोधात् स्याद्वादनीतिः श्रेयसी तद्विषां प्रमाणविरुद्धाभिधायित्वात् । कीदृशी स्याद्वादनीतिरत्रेत्याहुः'अबुद्धिपूर्वापेक्षाया' मिष्टानिष्टं" स्वदैवतः । बुद्धिपूर्वव्यपेक्षायामिष्टानिष्टं' स्वपौरुषात् ॥ ६१॥ [ भाग्यपुरुषार्थयोरनेकान्तं स धयंति जैनाचार्याः 1 'ततोऽतकितोपस्थित मनुकूलं " प्रतिकूलं वा देवकृतं, बुद्धिपूर्वापेक्षापायात् " तत्र पुरुष एकांत से भाग्य एवं पुरुषार्थ को एक साथ स्वीकार करने पर बाधा आती है । अवाच्यता को एकांत से मानने पर स्ववचन विरोध आता है । अतः स्याद्वाद नीति ही श्रेयस्करी है । क्योंकि उसके द्वेषी प्रमाण से विरुद्ध कथन करने वाले हैं । उत्थानिका - वह स्याद्वाद की नीति कैसी है ऐसा प्रश्न होने पर श्री समंत भद्राचार्यवर्यं कहते हैं - बिना विचारे अनायास ही, इष्ट अनिष्ट कार्य कोई । जब बन जावे तब समझो तुम, भाग्य प्रधान हमारा ही ॥ बुद्धीपूर्वक यदि प्रयत्न से इष्ट अनिष्ट कार्य बनते । तब तो निज के पुरुषार्थं को, मुख्य भाग्य को गौण कहें ॥ ६१ ॥ कारिकार्थ – अबुद्धिपूर्वक की अपेक्षा में जो इष्ट एवं अनिष्ट कार्य होते हैं वे स्वभाग्य से होते हैं एवं बुद्धिपूर्व की अपेक्षा करने पर सभी इष्ट, अनिष्ट कार्य अपने पुरुषार्थ से होते हैं ॥ ६१ ॥ [ भाग्य और पुरुषार्थ के अनेकांत को जैनाचार्य सिद्ध करते हैं । ] इसलिये अतर्कित - बिना विचारे ही उपस्थित हुआ ( सिद्ध हुआ) अनुकूल अथवा प्रतिकूल कार्य भाग्य कृत है क्योंकि उनमें बुद्धिपूर्वक की अपेक्षा नहीं है, वहाँ पुरुषार्थ अप्रधान है एवं भाग्य Jain Education International 1 देवपुरुषयोरुभयवादिनाङ्गीकृतयोर्देवपौरुषयोर्युगपत् सर्वथाङ्गीकारो न घटते कस्मादकत्र द्वयोः सर्वथा प्रतिपादनस्य निषेधात् । दि० प्र० । 2 पौरुषम् । दि० प्र० । 3 विरोधादिति दोषात् । दि० प्र० । 4 अबुद्धिपूर्वकारणं यस्याः । दि० प्र० । 5 सिद्धम् = यतो विचारपूर्वाश्रयणात् स्वकर्मतः सकाशादिष्टानिष्टं घटते । तथा विचारपूर्वाश्रयणात् पुरुषव्यापारादिष्टानिष्टं घटते ततो नु अहो इष्टमनिष्टं वा दैवकृतं किम् नायातमपि त्वायातं कस्मादबुद्धिपूर्वाश्रयणात् । तत्रदेवकृताङ्गीकारे कर्मणो गौणत्वात् पौरुषस्य मुख्यत्वात् द्वयोर्मध्य एकतरस्याभावान्न । दि० प्र० । 6 अतर्कितोपस्थितमचिन्तितं समागतमनुकूलं राजप्रासादादिकं प्रतिकूलं सर्वाग्निजलोपद्रवरूपं स्वदेवं कथ्यते । दि० प्र० । 7 कार्यादिकम् । दि० प्र० । 8 स्वकीयपुरुषव्यापारात् । दि० प्र० । 9 ततो न किन्तूपस्थितम् । इति पा० । दि० प्र० । 10 राज्यादिकम् । दि० प्र० । 11 तदपायेपि देवकृतं कुत इत्याह । दि० प्र० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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