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________________ उभय और अवक्तव्य के एकांतका खण्डन ] तृतीय भाग [ ४४३ दसकलविदामसंभवात् तन्निबन्धनपौरुषाभावात् । प्रमाणान्तरात्तदवबोधस्य' संभवेपि किमसावदृश्यः कारणकलापः कारणशक्तिविशेषः, पुण्यपापविशेषो वा ? प्रथमपक्षे तत्सम्यगवगमनिमित्तकस्यापि पौरुषस्य व्यभिचारदर्शनान्नामोघत्वसिद्धि : ' । द्वितीयपक्षे तु दैवसहायादेव' पौरुषात् फलसिद्धिः, 4 दैवसदवगम' निबन्धनादेव' पौरुषादुपेयप्राप्तिव्यवस्थितेः । तदपरिज्ञानपूर्वकादपि कदाचित्फलोपलब्धेश्च न सम्यगवबोधनिबन्धनः ' पौरुषैकान्तः । इत्यसौ परित्याज्य एव देवकान्तवत् । विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम् । अवाच्यतैकान्तेप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते ॥ ६०॥ चार्वाक - अनुमानादि प्रमाण से उसका ज्ञान सम्भव है । जैन - फिर भी यह अदृश्य कारण कलाप क्या कारण की शक्ति विशेष है या पुण्य-पाप विशेष है ? आप यदि प्रथम पक्ष लेवें तब तो उस कारण शक्ति विशेष कारणों से सहित सम्यग्ज्ञान निमित्तक भी पुरुषार्थ में व्यभिचार आता है इसलिये पुरुषार्थ सफल ही हो ऐसी सिद्धि नहीं हो सकती अर्थात् जैसे क्षीणायुष्क पुरुष में औषधि शक्ति का सम्यग्ज्ञान निमित्तक भी उसके पीने आदि का पुरुषार्थ उपयोगी नहीं होता है इसलिये वहाँ व्यभिचार आता है । द्वितीय पक्ष लेने पर तो देव की सहायता सहित ही पुरुषार्थ से फल सिद्धि हुई । अतः भाग्य रूप सम्यग्यज्ञान निमित्तक पुरुषार्थ से ही उपेय की प्राप्ति व्यवस्थित है एवं देव के परिज्ञानपूर्वक से रहित भी कदाचित् फल की उपलब्धि देखी जाती है अतः सम्यग्ज्ञान निमित्तक पुरुषार्थैकांत श्रेयस्कर नहीं है इसलिये यह देवैकांत के समान त्याग करने योग्य ही है । भाग्य और पुरुषार्थ उभय का, ऐक्य नहीं है आपस में । चूंकि विरोधी हैं ये दोनों, स्याद्वाद नय द्वेषी के ।। यदि इन दोनों की "अवाच्यता" कहो सर्वथा की विधि से । तब तो वचनों से "अवाच्य" इस पद को वाच्य किया कैसे ||६० कारिकार्थ- स्याद्वाद न्याय के बैरियों के यहाँ उभय ऐकात्म्य भी नहीं है अर्थात् पृथक् कार्य की अपेक्षा से दैव एवं पौरुष के ऐकात्म्य को मीमांसक ने माना है वह भी सिद्ध नहीं है क्योंकि परस्पर में विरोध आता है । एकांत से अवाच्यता के मानने पर " अवाच्य" यह उक्ति ही असंभव है ||६|| Jain Education International 1 आह परोन्यस्मादनुमानादिप्रमाणाददृश्यकारणकलापस्यावबोधः संभवतीति चेत् स्या० तदासौ अदृश्यकारणकलापः कारणशक्तिविशेषः पुण्यपापविशेषो वेति प्रश्नः । दि० प्र० । 2 समीचीनः । दि० प्र० । 3 कस्यचिदुपेयाप्राप्तेः दैवं पुण्यं सहायरूपं यस्य पौरुषस्य तत्तस्मात् । दि० प्र० । 4 विद्यमानता । दि० प्र० । 5 वसः । दि० प्र० । 6 पौरुषात् । दि० प्र० । 7 दैव । दि० प्र० । 8 देवस्य पौरुषकान्तः । दि० प्र० 1 9 कारणात् । दि० प्र० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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