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अष्टसहस्री
[ अ० १० कारिका ८६
सहायास्तादृशाः सन्ति यादृशी भवितव्यता' इति प्रसिद्धः । तत्सर्वं बुद्धिव्यवसायादिकं पौरुषं पौरुषापादितमिति चेत्तटमोघमेव सर्वप्राणिषु पौरुषं भवेत् । तथैवेति चेत् तद्व्यभिचारदशिनो न वै श्रद्दधीरन । स्यान्मतमेतत्-पौरुष द्विविधं, सम्यग्ज्ञानपूर्वकं मिथ्याज्ञानपूर्वक च । तत्र मिथ्याज्ञानपूर्वकस्य पौरुषस्य व्यभिचारदर्शनेपि' सम्यगवबोधनिबन्धनस्य न व्यभिचारः । ततः सफलमेव पौरुष मिति । तदसत्' दृष्टकारणसामग्रीसम्यगवबोधनिबन्धनस्यापि पौरुषस्य व्यभिचारदर्शनात् 'कस्यचिदुपेयाप्राप्तेरदृष्टकारण कलाप सम्यगवबोधस्य तु साक्षा
यह बात प्रसिद्ध है । वे सभी बुद्धि व्यवसायादिक पुरुषार्थ ही हैं क्योकि वे सभी पुरुषार्थ से ही होते हैं।
जैन-तब तो सभी प्राणियों का पुरुषार्थ सफल ही सिद्ध होगा। शंका-सफल ही देखा जाता है।
जैन-तब तो पुरुषार्थ के होने पर भी उससे कहीं कार्य की सिद्धि होती है कहीं नहीं भी होती है अतः व्यभिचार देखा जाने से ऐसा श्रद्धान नहीं करना चाहिये।
चार्वाक-पुरुषार्थ दो प्रकार का है सम्यग्ज्ञानपूर्वक एवं मिथ्याज्ञानपूर्वक । मिथ्याज्ञानपूर्वक पुरुषार्थ में व्यभिचार होने पर भी सम्यग्ज्ञानपूर्वक पुरुषार्थ व्यभिचारी नहीं होता है । इसलिये पुरुषार्थ सफल ही है।
__ जैन-यह कथन असत् है। दृष्ट कारण सामग्री रूप सम्यग्ज्ञानपूर्वक पुरुषार्थ में भी व्यभिचार देखा जाता है क्योंकि किसी उपेय-प्राप्य करने योग्य की प्राप्ति नहीं भी होती है एवं अदृष्ट कारण कलाप रूप सम्यग्ज्ञान प्रत्यक्ष से अल्पज्ञ पुरुषों के असम्भव है उस निमित्तक पुरुषार्थ भी नहीं हो सकता है । अर्थात् चार्वाक ने कहा कि दृष्ट कारण सामग्री से सहित सम्यग्ज्ञान यदि व्यभिचरित है तब तो अदृष्ट-पुण्य पापरूप कारण समूह से सहित सम्यग्ज्ञानपूर्वक पुरुषार्थ गलत नहीं होगा । तब आचार्य ने कहा कि अल्पज्ञ जनों को यह निर्णय नहीं हो सकेगा कि यह पुरुषार्थ अदृष्ट सहाय निमित्तक है।
1 आह पौरुषवादी। दि०प्र० । 2 सफलम । दि० प्र०। 3 आह परः हे स्याद्वादिन तथव पौरुषत्वं सफल मेवास्तीति चेत् स्या० तस्य पौरुषफलस्य व्यभिचारावलोकेन स्फुटं न प्रतिपद्ये रन् । दि०प्र०। 4 अमोघमेवापौरुषमिति । ब्या० प्र०। 5 अर्थे । ब्या०प्र०। 6 स्याद्वादी । दि० प्र० । दृष्टाया: कारणसामग्री क्षित्युदकादिलक्षणा । ब्या० प्र.17 यदुक्त पुरुषवादिना तदसत्यं कस्मादिन्द्रिय ग्राह्यकारणसामग्रया: संबधिसम्यक्परिज्ञानं निमित्त यस्य पौरुषस्य तत्तथोक्तं तस्य ईदशस्य पौरुषस्य तत्तथोक्तं व्यभिचारो दृश्यते कस्मात्करयचिद् पुरुषस्य साध्यस्याघटनात् = अदृश्यकारणकलापस्य सम्यकपरिज्ञानमसर्वज्ञानां साक्षान्न संभवति कस्मात् । सोदृश्य कारणकलापस्य सम्यगवबोधो निमित्तं यस्य तात्तन्निबन्धनं तत्पौरुषञ्च तन्निबन्धनपौरुषं तस्याभावात् । दि० प्र०। 8 बसः । ब्या० प्र० । 9-फल । ब्या० प्र० । 10 पुण्यादि । ता । ब्या०प्र० ।
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