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पौरुषवाद का खण्डन ] तृतीय भाग
[ ४४१ त्वात् , मोक्षस्यापि परमपुण्यातिशय चारित्रविशेषात्मकपौरुषाभ्यामेव संभवात् । ततो न पाक्षिकोपि देवकान्तः श्रेयान् ।
पौरुषादेव सिद्धिश्चेत्' पौरुषं दैवतः कथम् ? ।
पौरुषाच्चेदमोघं स्यात, सर्वप्राणिषु पौरुषम् ॥८६॥ [ पुरुषार्थादेव यदि कार्यसिद्धिः स्यात्तहि सर्वप्राणिषु वर्तते एव सर्वेषां कार्यसिद्धिः कथं न भवति ? ]
पौरुषादेवार्थस्य सिद्धिरिति वदतोपि कथं पौरुषं दैवतः स्यात् ? प्रतिज्ञाहानिप्रसङ्गात् । तद्धि पौरुषं विना देवसंपदा' न स्यात्, 'तादृशी जायते बुद्धिर्व्यवसायश्च तादृशः ।
मोक्ष भी परम पुण्यातिशयरूप भाग्य तथा चारित्र विशेषात्मक पुरुषार्थ से हो सम्भव है इसलिये पाक्षिक देवकांत श्रेयस्कर नहीं है । अर्थात् केवल पहला भाग्यकांत श्रेयस्कर नहीं है ऐसा ही नहीं है किन्तु स्वयं प्रयत्न न करते हुये के सभी इष्ट-अनिष्ट कार्य भाग्य से ही होते हैं ऐसा पक्ष भी निर्दोष नहीं है।
यदि पुरुषार्थ अकेले से ही. सभी कार्य की सिद्धि कहो। तब तो भाग्य उदय से यह, पुरुषार्थ कैसे बना अहो । यदि पुरुषार्थ स्वयं पौरुष से, होता तब तो सब जन के।
सभी कार्य की सिद्धी होगी, चूंकि सभी में पौरुष है ।।६।। कारिकार्थ-यदि केवल पुरुषार्थ से ही अर्थ की सिद्धि मानी जावे तब तो देव से पुरुषार्थ देखा जाता है वह कैसे घटेगा? यदि कहो कि पुरुषार्थ भी पुरुषार्थ से ही उत्पन्न होता है पुनः किये गये सभी कार्य सफल होने चाहिये क्योंकि पुरुषार्थ तो सभी प्राणियों में पाया जाता है ।।६।।
[ यदि पुरुषार्थ से ही कार्यसिद्धि होती है तब तो सभी प्राणियों में पुरुषार्थ
- है पुन: सभी के सभी कार्यों की सिद्धि क्यों नहीं होती ? ] यदि आप चार्वाक पुरुषार्थ से ही कार्य की सिद्धि होना कहते हैं तब तो पुरुषार्थ भाग्य से कैसे होगा? अन्यथा प्रतिज्ञा हानि दोष आ जावेगा।
__ शंका-पुरुषार्थ के बिना दैव सम्पत्ति नहीं हो सकेगी। "जैसी भवितव्यता होती है बुद्धि उसी प्रकार की हो जाती है, व्यवसाय भी वैसा ही होता है एवं सहायक भी वैसे ही मिलते हैं।"
1 ननु च मोक्षो दृष्टादृष्टयोरन्यतरादेव तत्कथमन्यतरापायेऽर्थस्यानुपद्यमानत्वं युक्त भवेदित्याशंकायामाह । दि० प्र० । 2 न केवलमिष्टानिष्टकार्यस्य । दि० प्र० । 3 देव । दि० प्र० । 4 द्वन्द्व । दि० प्र०। 5 यथाख्यात । दि० प्र०। 6 पूरुषव्यापारात । दि० प्र०। 7 कार्यस्य । दि० प्र०। 8 देवात्पौरुषं भवति चेत्तदा पौरुषादेवार्थसिदिरिति प्रतिज्ञा हीयते । दि०प्र०। 9 संपादिता । इति पा० । दि० प्र०।
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