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________________ ४४० ] अष्टसहस्री [ अ०प० कारिका ८८ नाद्, देवमात्रे वा 'समीहानर्थक्यप्रसङ्गात् । स्वयमप्रयतमानस्य सर्वमिष्टानिष्टमदृष्टमात्रादेव', प्रयतमानस्य तु प्रयत्नाख्यात् पौरुषाद् दृष्टादिति' वदन्नपि न प्रेक्षावान्, कृष्यादिषु समं प्रयतमानानां कस्यचिदेवार्थप्राप्त्यनर्थोपरम'दर्शनादपरस्यानर्थप्राप्त्यर्थोपरमप्रतीते:', धर्माधर्मयोरपि' तन्निमित्तत्वसिद्धेः । स्वयमप्रयतमानानामर्थप्राप्त्यनर्थोपरमयोरनर्थप्राप्त्यर्थोपरमयोश्च सद्भावेपि प्रयत्नाभावेनुपभोग्यत्वप्रसङ्गात् पौरुषस्यापि तदनुभवकारणत्वनिश्चयात सर्वत्र 1दृष्टादृष्टयोनिमित्तत्व सिद्धिस्तयोरन्यतरस्याप्यपाये 2 तस्यानुपपद्यमान क्योंकि पुरुषार्थ मात्र से कार्य सिद्ध होता नहीं देखा जाता है अथवा देवमात्र को ही एकांत से मानने पर ईवश्र की इच्छा अनर्थक हो जावेगी। शंका-"स्वयं प्रयत्न न करते हुये जीवों के सभी इष्ट-अनिष्ट कार्य भाग्य मात्र से ही सिद्ध होते हैं किन्तु प्रयत्न करते हुए जनों के सभी इष्ट-अनिष्ट कार्य प्रयत्न नामक दृष्ट पुरुषार्थ से होते हैं । समाधान (जैन)-ऐसा कहने वाले आप भी बुद्धिमान् नहीं हैं । कृषि आदि कार्यों में एक साथ प्रयत्न करने वाले पुरुषों में से किसी के तो अर्थ कार्य को सिद्धि और अनर्थ-अकार्य का अभाव देखा जाता है तथा किसी के अनर्थ की प्राप्ति एवं अर्थ का अभाव देखा जाता है क्योंकि धर्म एवं अधर्म अर्थात् पुण्य और पाप भी उन कार्यों की सिद्धि-असिद्धि में निमित्त सिद्ध हैं । तथा स्वयं प्रयत्न न करने वाले पुरुषों को अर्थ की प्राप्ति, अनर्थ का अभाव एवं अनर्थ की प्राप्ति और अर्थ का अभाव विद्यमान है फिर भी प्रयत्न-पुरुषार्थ के अभाव में इष्ट-अनिष्ट अथवा सुख-दु:ख के अनुपभोग्यपने का प्रसंग आ जावेगा । अर्थात् बिना पुरुषार्थ के उनका अनुभव भी नहीं हो सकेगा क्योंकि पुरुषार्थ भी उनके अनुभव का कारण निश्चित है । अतः सर्वत्र दृष्ट-पुरुषार्थ अदृष्टभाग्य दोनों ही निमित्त रूप से सिद्ध हैं। इन दोनों में से किसो एक का भी अभाव करने पर वह (इष्ट कार्य) बन नहीं सकता है। 1 पौरुष । ब्या० प्र०1 2 देवमात्रे वार्थसिद्धिर्न दृश्यते । दृश्यते चेत्तदा समीहायाः पुरुषचेष्टायाः अनर्थत्वमायाति । दि० प्र०। 3 इष्टानिष्टसिद्धिः । दि० प्र०। 4 प्रत्यक्षात् । ब्या० प्र०। 5 युगपत् । ब्या० प्र०। 6 पुरुषस्य । तेषां मध्ये । दि० प्र०:7 अभाव । ब्या० प्र०। 8 नुः । ब्या० प्र०। 9 धर्मार्थसिद्धिरनर्थविनाशयोः कारणं तथापायमनर्थसिद्धार्थविनाशयोः कारणं घटते । दि० प्र०।10 इष्टानिष्ट प्रयोजन । ब्या० प्र०। 11 अन्यथा। ब्या०प्र० । 12 पुरुषस्य प्रयत्नाभावे सत्यर्थानर्थसिद्धयोरनुभवनत्वं न घटते =पुरुषस्तयोरनिर्थसिद्धयोरनुभवकारको निश्चीयते । दि० प्र०। 13 न केवलमदृष्टस्य । व्या० प्र० । 14 इष्टानिष्टयोरर्थानर्थ । ब्या० प्र०। 15 ततश्च । दि० प्र०। 16 पौरुष । दि० प्र०। 17 पुण्यपाप । दि० प्र०। 18 इष्टानिष्टप्रयोजननिमितत्त्व । दि० प्र० । 19 दृष्टादृष्ट योर्मध्ये एकतरस्याप्यभावेऽर्थानर्थसिद्धयोरनुभवो नोपपद्यते। दि० प्र०। 20 अनुभवस्य । इष्टानिष्टप्रयोजननिमित्तत्वस्य । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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