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अष्टसहस्री
__[ न० ५० कारिका ६२
[ यदि एकांतेन परस्मिन् दुःखोत्पादने पापं सुखोत्सादने पुण्यं भवेत्तहि के के दोषा भविष्यतीति दर्शयंति आचार्याः । ]
द्विविधं हि दैवं, पुण्यं पापं च प्राणिनामिष्टानिष्टसाधनमुक्तं, 'सद्वेद्यशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम्, इतरत् पापम्, इति वचनात् 'तदास्रवनिमितविप्रतिपत्तिविपत्त्यर्थमिदमुक्तम् । तत्र' परसंताने दुःखहेतुः पुरुषः पापमात्मन्यास्रवयति सुखहेतु: पुण्यमिति परत्र सुखदुःखोत्पादनात् पुण्यपापबन्धकान्ते कथमचेतनाः क्षीरादयः कण्टकादयो वा न बध्येरन ? परस्मिन् सुखदुःखयोरुत्पादनात् । चेतना एव बन्धार्हा इति चेत् तहि वीतरागाः कथं न बध्येरन् ? तन्निमित्तत्वाबन्धस्य । तेषामभिसन्धेरभावान्न बन्ध इति चेत्तहि न परत्र सुखदुःखोत्पादनं पुण्यपापबन्धहेतुरित्येकान्तः' संभवति ।
[ यदि एकांत से दूसरों में दुःख उत्पन्न करने से पाप और सुख उत्पन्न करने से पुण्य होता है
तो क्या दोष आते हैं सो दिखाते हैं। ] भाग्य दो प्रकार का है पुण्य और पाप रूप । वही प्राणियों के इष्ट एवं अनिष्ट का कारण है। "सद्वेद्यशुभायु मगोत्राणि पुण्यं, इतरत् पापं" ये सूत्रकार के वचन हैं । अर्थात् सातावेदनीय, शभ आयू-तिर्यंच आयु, मनुष्य और देवायु, शुभ नाम और उच्च गोत्र ये पुण्य प्रकृतियाँ हैं, इनसे भिन्न पाप प्रकृतियाँ हैं। उन पुण्य, पाप के आस्रव के निमित्त में होने वाले विवाद को दूर करने के लिए यह कथन है।
शंका–उसमें पर सन्तान में दुःख का हेतु पुरुष अपनी आत्मा में पाप का आस्रव करता है एवं पर में सुख हेतुक पुरुष पुण्य का उपार्जन करता है।
समाधान (जैन)-यदि पर में सुख-दुःख को उत्पन्न करने से एकांत से पुण्य-पाप का बंध होता है, तब तो अचेतन दूध आदि अथवा कंटक, विषादि पुण्य-पाप से क्यों नहीं बंध जाते हैं ? क्योंकि वे भी पर में सुख-दुःख उत्पन्न करते हैं।
शंका-चेतन ही बंध के योग्य हैं, अचेतन नहीं ।
समाधान-तब तो वीतरागी भी क्यों नहीं बंध जावेंगे ? क्योंकि बंध तो सुख-दुःख निमित्तक ही आपने माना है।
शंका–उन वीतरागी पुरुषों में मनः संकल्प का अभाव है, इसलिये बंध नहीं होता है।
1 पुण्यपापयोः । परसुखदुःखं पुण्यपापकारणं भवति इति विवाद निराकरणार्थमिदं सूत्रं प्रतिपादितम् । दि० प्र० । 2 पापं ध्रवमित्यादि । ब्या०प्र०। 3 एवञ्च सति । ब्या० प्र०। 4 आगमयति । ब्या० प्र० । आश्रावयति । इति पा० । दि० प्र०। 5 परस्मिन् सुखदु:खं निमित्तं यस्य बंधस्य सतनिमित्तस्तस्यभावस्तस्मात । दि० प्र० । 6 पर आह तेषां बीतरागाणामाश्रवहेतुपरिणाम विशेषस्याभावाबन्धो नास्तीति चेत् । दि० प्र० । 7 इत्युक्ते परिणामा दोसमोहजुदो असुही मोहपदेसोसुहोवा असुहो वा हवदि रागो इति सूचितं स्याद्वादिभि नत्वेकान्तेन सुखदुःखोत्पादनात् । दि० प्र० ।
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