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वास्तव में जैन न्याय को अकलंक की सबसे बड़ी देन है। इनके द्वारा की गई प्रमाण व्यवस्था दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों के आचार्यों को मान्य रही है।
तत्त्वार्थवार्तिक
यह ग्रन्थ श्री उमास्वामी आचार्य के तत्त्वार्थ सूत्र की टीका रूप है ।
अष्टशती
श्री स्वामी समंतभद्र द्वारा रचित आप्तमीमांसा की यह भाष्य रूप टीका है। इस वृत्ति का प्रमाण १०० श्लोक प्रमाण है, अतः इसका "अष्टशती" यह नाम सार्थक है।
इस प्रकार से श्रीमद् भट्टाकलंक देव के बारे में मैंने संक्षिप्त वर्णन किया है। वर्तमान में "निकलंक का बलिदान" नाम से इनका नाटक खेला जाता है, जो कि प्रत्येक मानव के मानसपटल पर जैन शासन की रक्षा और प्रभावना की भावना को अंकित किये बिना नहीं रहता है । बाल्यकाल में "अकलंक निकलंक" नाटक देखकर ही मेरे हृदय में एक पंक्ति अंकित हो गई थी कि
"प्रक्षालनाद्धि पंकस्य दूरादस्पर्शनं वरम्" कीचड़ में पैर रखकर धोने की अपेक्षा कीचड़ में पैर न रखना ही अच्छा है। उसी प्रकार से गृहस्थावस्था में फंस कर पुनः निकलकर दीक्षा लेने की अपेक्षा गृहस्थी में न फंसना ही अच्छा है । इस पंक्ति ने ही मेरे हृदय में वैराग्य का अंकुर प्रगट किया था जिसके फलस्वरूप आज मैं आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर उनके विषय में कुछ लिखने के लिये सक्षम हुई हूँ।
इस अष्टसहस्री ग्रन्थ के मध्य-मध्य में आये हए अष्टशती के वाक्य इन्हीं आचार्यदेव के हैं। इन्हें मेरा कोटिकोटि वंदन।
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