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गुरुपरम्परा
देवकीर्ति की पट्टावली में श्री कुन्दकुन्ददेव के पट्ट पर उमा स्वामी अपर नाम गृद्धपिच्छ आचार्य हुए । उनके पट्ट पर बलाक विच्छ आरूढ़ हुए । इनके पट्टाधीश श्री समंतभद्र स्वामी हुए । उनके पट्ट पर श्री पूज्यपाद हुए । पुन: उनके पट्ट पर श्री अकलंकदेव हुए ।
"जनिष्टाकलंक यज्जिनशासनमादितः । अकलंक बभौ येन सोऽकलंको महामातिः १ ॥ १० ॥
इनके द्वारा रचित ग्रन्थ
( ४६ )
इनके द्वारा रचित स्वतंत्र ग्रन्थ चार हैं और टीका ग्रन्थ दो हैं ।
१. लघीयस्त्रय (स्वोपज्ञ विवृति सहित), २. न्यायविनिश्चय (सवृत्ति), ३. सिद्धिविनिश्चय (सवृत्ति); ४. प्रमाण संग्रह (सवृत्ति) ।
टीका ग्रन्थ
१. तत्त्वार्थ वार्तिक (सभाष्य ), २. अष्टशती ( देवागम विवृत्ति) ।
लघीयस्त्रय
इस ग्रन्थ में प्रमाण, प्रवेश नय प्रवेश और निक्षेप प्रवेश - ये तीन प्रकरण हैं । ७८ कारिकायें हैं, मुद्रित प्रति में ७७ ही हैं । श्री प्रभाचन्द्राचार्य ने इसी ग्रन्थ पर "न्याय कुमुदचन्द्र" नाम से व्याख्या रची है, जो कि न्याय का एक अनूठा ग्रन्थ है ।
न्यायविनिश्चय
इस ग्रन्थ में प्रत्यक्ष अनुमान और प्रवचन - ये तीन प्रस्ताव हैं । कारिकायें ४८० हैं । इसकी विस्तृत टीका श्री वादिराजसूरि ने की है । यह ग्रन्थ ज्ञानपीठ काशी (भारतीय ज्ञानपीठ ) द्वारा प्रकाशित हो चुका है । सिद्धि विनिश्चय -
इस ग्रन्थ में १२ प्रस्ताव हैं । इसकी टीका श्री अन्तवीर्यसूरि ने की है। यह भी ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित हो चुका है ।
प्रमाण संग्रह -
इसमें 8 प्रस्ताव हैं और ८७-५ कारिकायें हैं। यह ग्रन्थ "अकलंक ग्रन्थत्रय" में सिन्धी ग्रन्थमाला से प्रकाशित हो चुका । इस ग्रन्थ की प्रशंसा में धनंजय कवि ने नाममाला में एक पद्य लिखा हैप्रमाणमकलंकस्य पूज्यपादस्य लक्षणम् । धनंजयकवेः काव्यं रत्नत्रयमपश्चिमम् ।
अकलंकदेव का प्रमाण, पूज्यपाद का व्याकरण और धंनजय कवि का काव्य मे अपश्चिम- सर्वोत्कृष्ट रत्नत्रय - तीन रत्न हैं ।
२. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग ४,
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