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________________ ( ४८ ) किस काम का ? अतः अब मैं चतुराहार का त्याग कर आपकी ही शरण लेती हूं।" ऐसा कहकर उसने कार्योत्सर्ग धारण कर लिया। उसके निश्चल ध्यान के प्रभाव से पद्मावती देवी का आसन कंपित हुआ। उसने जाकर "कहा देवि ! तुम चिन्ता छोड़ो, उठो! कल ही अकलंक देव आयेंगे जो कि तुम्हारे मनोरथ को पूर्ण करने के लिये कल्पवृक्ष होंगे।" रानी ने घर आकर यत्र-तत्र किंकर दौड़ाये । अकलंकदेव बगीचे में अशोकवृक्ष के नीचे ठहरे हैं, सुनकर वहां पहुंची। भक्तिभाव से उनकी पूजा की और अश्रु गिराते हुए अपनी विपदा कह सुनाई। अकलंकदेव ने उसे आश्वासन दिया और वहां आये । राजसभा में शास्त्रार्थ शुरू हुआ। प्रथम दिन ही संघश्री-बोद्धगुरु घबड़ा गया और उसने अपने इष्टदेव की आराधना करके तारादेवी को शास्त्रार्थ करने के लिये घट में उतारा । छह महीने तक शास्त्रार्थ चलता रहा किन्तु तारादेवी भी अक्लंकदेव को पराजित नहीं कर सकी। अन्त में अकलंक को चितातुर देख चक्रेश्वरी देवी ने उन्हें उपाय बतलाया। प्रात: अकलंकदेव ने देवी से समुचित प्रत्युत्तर न मिलने से परदे के अन्दर घुसकर घड़े को लात मारी जिससे वह देवी पराजित हो भाग गई और अकलंकदेव के साथ-साथ जैन शासन की विजय हो गई। रानी के द्वारा कराई जाने वाली रथ यात्रा बड़े धूमधाम से निकली और जैन धर्म की महती प्रभावना हुई। श्री मल्लिषेणप्रशस्ति में इनके विषय में विशेष श्लोक पाये जाते हैं । यथा तारा येन विनिजिता घटकुटीगूढ़ावतारा समं । बौद्धैर्यो धृतपीठपीडितकुदृग्देवात्तसेवांजलिः ॥ प्रायश्चित्तमिवांघ्रिवारिजरजत्नानं च यस्याचरत् । दोषाणां सुगतस्स कस्य विषयो देवाकलंकः कृती ॥२०॥ चूणि "यस्येवमात्मनोऽनन्यसामान्यनिरवद्यविद्या विभवोपवर्णनमाकर्ण्यते।" आगे २३वें श्लोक में कहते हैं नाहंकारवशीकृतेन मनसा न द्वेषिणा केवलं, नैरात्म्यं प्रतिपद्य नश्यति जने कारूण्यबुद्धया मया। राज्ञः श्रीहिमशीतलस्य सदसि प्रायो विदग्धात्मनो, बौद्धौघान् सकलान् विजित्य सुगतः पादेन विस्फोटितः।। अर्थात् महाराज हिमशीतल की सभा में मैंने सर्व बौद्ध विद्वानों को पराजित कर सुगत को पैर से ठुकराया। यह न तो मैंने अभिमान के वश होकर किया है न किसी प्रकार के द्वेष भाव से, किन्तु नास्तिक बनकर नष्ट होते हुए जनों पर मुझे बड़ी दया आई, इसलिये मुझे बाध्य होकर ऐसा करना पड़ा है। इस प्रकार से संक्षेप में इनका जीवन परिचय दिया गया है। समय __डा. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य ने इनका समय ईस्वी सन् की ८वीं शती सिद्ध किया है । ५० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने ईस्वी सन् ६२०-६८० तक निश्चित किया है, किन्तु महेन्द्र कुमार जी ग्या० के अनुसार यह समय ई० सन् ७२०-१८० आता है। १. अकलंकस्तोत्र। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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