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( ४७ )
जीवन परिचय
तत्त्वार्थवार्तिक के प्रथम अध्याय के अन्त में प्रशस्ति है, उसके आधार से ये "लघुहव्वनुपति" के पुत्र प्रतीत होते हैं । यथा
"जीयाच्चिरमकलंकब्रह्मा लघुहब्वनृपतिवरतनयः ।
अनवरतनिखिलजननतविद्यः प्रशस्तजनहृदयः।।" लघुहव्वनृपति के श्रेष्ठ पुत्र श्री अकलंकब्रह्मा चिरकाल तक जयशील होवें, जिनको हमेशा सभी जन नमस्कार करते थे और जो प्रशस्तजनों के हृदय के अतिशय प्रिय थे ।
ये राजा कौन थे, किस देश के थे, यह कुछ पता नहीं चल पाया है। हो सकता है ये दक्षिण देश के राजा रहे हों। श्री नेमिचन्द्रकृत आराधना कथाकोष में इन्हें मंत्रीपुत्र कहा है। यथा
मान्यखेट के राजा शुभतुंग के मन्त्री का नाम पुरुषोत्तम था, उनकी पत्नी पद्मावती थीं। इनके दो पुत्र थे-अकलंक और निकलंक । एक दिन आष्टन्किह पर्व में पुरुषोत्तम मंत्री ने चित्रगुप्त मुनिराज के समीप आठ दिन ब्रह्मचर्य ग्रहण किया और उसी समय विनोद में दोनों पुत्रों को भी व्रत दिला दिया।
जब दोनों पुत्र युवा हए तब पिता के द्वारा विवाह की चर्चा आने पर विवाह करने से इन्कार कर दिया । यद्यपि पिता ने बहत समझाया कि तुम दोनों को व्रत विनोद में दिलाया था तथा वह आठ दिन के लिये ही था, किन्तु इन युवकों ने यही उत्तर दिया कि-"पिता जी! व्रत ग्रहण में विनोद कैसा? और हमारे लिये आठ दिन की मर्यादा नहीं की थी।"
पुनः ये दोनों बाल ब्रह्मचर्य के पालन में दृढ़ प्रतिज्ञ हो गये और धर्माराधना में तथा विद्याध्ययन में तत्पर हो गये। ये बौद्ध शास्त्रों के अध्ययन हेतु "महाबोधि" स्थान में बौद्ध धर्माचार्य के पास पढ़ने लगे। एक दिन बौद्ध गुरु पढ़ाते-पढ़ाते कुछ विषय को नहीं समझा सके तो वे चिन्तित हो बाहर चले गये । वह प्रकरण सप्त भंगी का था, अकलंक ने समय पाकर उसे देखा, वहां कुछ अशुद्ध पाठ समझकर उसे शुद्ध कर दिया। वापस आने पर गुरु को शंका हो गई कि यहां कोई विद्यार्थी जैन धर्मी अवश्य है। उसकी परीक्षा की जाने पर ये अकलंक निकलंक पकड़े गये । इन्हें जेल में डाल दिया गया। उस समय रात्रि में धर्म की शरण लेकर ये दोनों वहां से भाग निकले । प्रातः इनकी खोज शुरु हुई । नंगी तलवार हाथ में लिये घुड़सवार दौड़ाये गये।
जब भागते हुए इन्हें आहट लिली तब निकलंक ने भाई से कहा-भाई ! आप एकपाठी हैं-अत: आपके द्वारा जैन शासन की विशेष प्रभावना हो सकती है अतः आप इस तालाब के कमल पत्र में छिपकर अपनी रक्षा कीजिये । इतना कहकर वे अत्यधिक वेग से भागने लगे। इधर अकलंक ने कोई उपाय न देख अपनी रक्षा कमल-पत्र में छिपकर की और निकलंक के साथ एक धोबी भी भागा। तब ये दोनों मारे गये।
कुछ दिन बाद एक घटना हुई, वह ऐसी है कि
रत्नसंचयपुर के राजा हिमशीतल की रानी मदनसुन्दरी ने फाल्गुन की आष्टान्हिका में रथ यात्रा महोत्सव कराना चाहा। उस समय बौद्धों के प्रधान आचार्य संघश्री ने राजा के पास आकर कहा कि जब कोई जैन मेरे से शास्त्रार्थ करके विजय प्राप्त कर सकेगा, तभी यह जैन रथ निकल सकेगा, अन्यथा नहीं । महाराज ने यह बात रानी से कह दी। रानी अत्यधिक चितित हो जिनमन्दिर में गई और वहाँ मुनियों को नमस्कार कर बोली"प्रभो! आप में से कोई भी इस बौद्ध गुरु से शास्त्रार्थ करके उसे पराजित कर मेरा रथ निकलवाइये" मुनि बोले-"रानी ! हम लोगों में एक भी ऐसा विद्वान नहीं है । हां, मान्यखेटपुर में ऐसे विद्वान मिल सकते हैं।" रानी बोली-"गुरुवर ! अब मान्यखेटपुर से विद्वान् भाने का समय कहाँ है ?" वह चिंतित हो जिनेन्द्रदेव के समक्ष पहुंची और प्रार्थना करते हुए बोली- भगवन् ! यदि इस समय जैन शासन की रक्षा नहीं होगी तो मेरा जीना
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