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३. इस देवागमस्तोत्र में सर्वज्ञदेव को तर्क की कसौटी पर कसकर सच्चा आप्त सिद्ध किया गया है। तत्कालीन, नैरात्म्यवाद, क्षणिकवाद, ब्रह्माद्वैतवाद, पुरुष-प्रकृतिवाद आदि की समीक्षा करते हुए स्याद्वाद सिद्धान्त की प्रतिष्ठा जैसी इस ग्रन्थ में उपलब्ध है, वैसी सप्तभंगी की सुन्दर व्यवस्था अन्यत्र जनवाङमय में आपको नहीं मिलेगा। यह स्तोत्र ग्रन्थ केवल तत्त्वार्थ सूत्र के "मोक्षमार्गस्य, मंगलाचरण को आधार करके बना है।
४. युक्त्यनुशासन में भी परमत का खण्डन करते हए आचार्यदेव ने वीर के तीर्थ को सर्वोदय तीर्थ घोषित किया है।
५. रत्नकरण्ड श्रावकाचार में तो १५० श्लोकों में ही आचार्यदेव ने श्रावकों के सम्पूर्ण व्रतों का वर्णन कर दिया है।
आगे की ७ रचनाएं आज उपलब्ध नहीं हैं।
इस प्रकार से श्री समंतभद्राचार्य अपने समय में एक महान् आचार्य हुए हैं। इनकी गौरव गाथा गाने के लिये हम और आप जैसे साधारण लोग समर्थ नहीं हो सकते हैं । कहीं-कहीं इन्हें भावी तीर्थकर माना गया है ।
इन्हीं के द्वारा रचित देवागमस्तोत्र-आप्तमीमांसा पर यह अष्टसहस्री ग्रन्थ बना है। इन स्वामी श्रीसमंतभद्राचार्य को मेरा शत्-शत् नमन ।
श्री अलंकदेव आचार्य
जैन दर्शन में अकलंक देव एक प्रखर तार्किक और महान दार्शनिक हुए हैं। बौद्ध दर्शन में जो स्थान धर्मकीति को प्राप्त है, जैन दर्शन में वही स्थान अकलंकदेव का है। इनके द्वारा रचित प्रायः सभी ग्रन्थ जैन दर्शन और जैन न्याय विषयक हैं। श्री अकलंक देव के सम्बन्ध में श्रवणबेलगोला के अभिलेखों में अनेक स्थान पर स्मरण आया है। अभिलेख संख्या ४७ में लिखा है
__षतर्केष्वकलंकदेवविबुधः साक्षादयं भूतले । अर्थात् अकलंकदेव षट्दर्शन और तर्कशस्त्र में इस पृथ्वी पर साक्षात् वृहस्पति देव थे। अभिलेख नं० १०८ में पूज्यपाद के पश्चात् अकलंकदेव का स्मरण किया गया है
"ततः परं शास्त्रविदां मुनीनामग्रेसरोऽभूवकलंकसूरिः।
मिथ्यान्धकारस्थगिताखिलार्थाः प्रकाशिता यस्य वचोमयूखैः२ ॥" इनके बाद शास्त्र ज्ञानी महामुनियों के अग्रणी श्री अकलंकदेव हुए जिनकी वचनरूपी किरणों के द्वारा मिथ्यांधकार से ढके हुए अखिल पदार्थ प्रकाशित हुए हैं ।
इनका जीवन परिचय, समय, गुरुपरम्परा और इनके द्वारा रचित ग्रन्थ इन चार बातों को संक्षेप से यहाँ दिखाया जायेगा।
१. जैन शिलालेख संग्रह, भाग १, अभिलेख ४७ । २. जैन शिलालेख संग्रह, भाग १, अभिलेख १०८ ।
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