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________________ ४३० ] अष्टसहस्री [ स० प० कारिका ८७ स्यापि' व्यभिचारप्रसङ्गात् । न हि व्यापारव्याहारनिर्भासोपि' विप्लुतो' नास्ति, येनाव्यभिचारी हेतुः स्यात् । [ ज्ञाने ग्राहग्राहकाकारत्वं वासनाभेदादेव, न तु बहिरर्थसद्भावादित्युक्ते आहुराचार्याः । ] तदन्यत्रापि वासनाभेदो गम्येत न संतानान्तरम् । यथैवं हि जाग्रद्दशायां बहिरर्थवासनाया दृढतमत्वात्तदाकारस्य' ज्ञानस्य सत्यत्वाभिमानः, स्वप्नादिदशायां तु तद्वासनाया' दृढत्वाभावात् तद्वेदनस्यासत्यत्वाभिमानो लोकस्य, न परमार्थतो बहिरर्थः सिध्य बौद्ध-विप्लवज्ञान-भ्रांत ज्ञान-द्विचन्द्रज्ञान और स्वप्नज्ञान में भी ग्राह्य-ग्राह्यकाकार के होने से आपका हेतु व्यभिचारी है क्योंकि विप्लवज्ञान में अपने भिन्न अर्थ का अवलम्बन नहीं है। जैन-ऐसा नहीं कहना अन्यथा आपका संतानान्तर साधन भी व्यभिचारी हो जावेगा। व्यापार एवं व्याहार-वचन का निर्भास विप्लुत न हो ऐसा नहीं है कि जिससे यह हेतु अव्यभिचारी होवे अर्थात् यह हेतु व्यभिचारी ही है क्योंकि स्वप्न दशा में व्यापार व्यवहार निर्भास विलुप्त ही हैं, अतएव आपका हेतु व्यभिचारी है । [ ज्ञान में ग्राह्य-प्राह्यकाकार भेद वासना के भेद से ही है किन्तु बाह्य अर्थ के सद्भाव से नहीं है। ऐसा कहने पर आचार्य कहते हैं ] अन्यत्र भी वासना भेद ही मान लेना चाहिये, संतानान्तर नहीं । जिस प्रकार से जाग्रत अवस्था में बाह्यार्थ की वासना से दृढ़तम होने से तदाकार ज्ञान में सत्यत्व का अभिमान होता है, किन्तु स्वप्नादि दशा में वह बाह्य पदार्थ की वासना दृढ़ नहीं है अतएव उस स्वप्न के ज्ञान में असत्य रूप का अभिमान सभी जन करते हैं। अतएव पारमार्थिकरूप से बाह्य पदार्थ सिद्ध नहीं होते हैं। इस प्रकार से आप विज्ञानाद्वैतवादी लोग वासना भेद स्वीकार करते हैं। _उसी प्रकार से अनुप्लव दशा में (जाग्रत दशा में) संतानान्तर ग्राहकज्ञान की वासना दृढ़तम होने से सत्यता का अभिमान होता है, अन्यत्र-स्वप्नादि उपप्लव दशा में उसकी दृढ़ता के न होने से असत्यता का व्यवहार होता है । इस प्रकार से वासना भेद स्वीकार करना चाहिये किन्तु 1 सन्तानान्तरसाधने हेतुरयम् । दि० प्र० । 2 स्याद्वाद्याह । हे सौगत, व्यापारव्याहारनिर्भासादिति परसन्तानसाधको हेतुस्तव भ्रान्तो नास्ति न हि भ्रान्त एव येन कुतोव्यभिचारी स्यादपितु व्यभिचार्येव । दि० प्र० । 3 निर्भासाविलुप्तो । इति पा० । दि० प्र० । 4 तस्माद्बाह्यार्थत्वात । दि० प्र०। 5 सन्तानान्तरे। दि० प्र० । 6 आह सौगतः हे स्याद्वादिन् ! परसन्तानसाधनोस्माभिर्वासनाभेदोङ्गीक्रियते न केवलमत्रैव तस्मात्परसन्ताना. दन्यत्र बहिरर्थेपि वासनाभेदोभ्युपगम्यते सन्तानान्तरं वासनाभेदान्न निश्चेयमस्माभिरस्यैवाग्रे व्याख्यानमस्ति प्रपञ्चतो ज्ञेयम् । दि० प्र०। 7 बहिरर्थात् । दि० प्र०। 8 लोकस्य । दि० प्र०। १ बहिरर्थ । दि० प्र० । 10 बहिरकारज्ञानस्य । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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