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जीव के अस्तित्त्व की सिद्धि । तृतीय भाग
[ ४२६ विरोधो' दूषणमिति चेत् सर्वथा कथंचिद्वा ? न तावदाद्यः पक्षः, सर्वथा क्वचिद्विरोधासिद्धेः शीतोष्णस्पर्शयोरपि सत्त्वाद्यात्मनाऽविरोधात्, स्वेष्टेपि तत्त्वे । कथंचिद्विरोधपरिहारस्य 'नुनरायासता'मध्यशक्तेन द्वितीयः पक्षः संभवति । 'तत्साक्षात्परंपरया' वा, विमत्यधिकरणभावापन्नं ज्ञानं, स्वरूपव्यतिरिक्तार्थालम्बनं, ग्राह्यग्राहकाकारत्वात् संतानान्तरसिद्धिवत् । विप्लज्ञानग्राह्यग्राहकाकारत्वेन व्यभिचार इति चेन्न, संतानान्तरसाधन
पूर्ववत् ही ये प्रश्न आते हैं एवं अनवस्था का भी प्रसंग आ जाता है । इस प्रकार से 'ज्ञान परमाणु रूप' आप बौद्धों का कथन स्वपक्षघाती बन जाता है किन्तु हम जैनियों के यहाँ तो इन दोषों को अवकाश ही नहीं है क्योंकि हमने बाह्य पदार्थों को सूक्ष्म, स्थूलात्मक एक जात्यंतर रूप से ही माना है; जैसे जीव में हर्ष, विषादादि अनेकाकार रूप पाये जाते हैं ।
सौगत-एक वस्तु में ही सूक्ष्मत्व एवं स्थूलत्व आदि कैसे रह सकते हैं ? अतः आपके यहां भी विरोध नाम का दूषण आता ही है।
जैन-आप बौद्ध हमारे यहां विरोध दूषण को सर्वथा मानते हैं या कथंचित् ? पहला पक्ष तो ठीक नहीं है क्योंकि सर्वथा कहीं पर विरोध सिद्ध नहीं है। कारण शीत एवं उष्ण स्पर्श का भी सत्वादि स्वरूप से अविरोध है, विरोध नहीं है। आपके द्वारा मान्य इष्ट तत्त्व में भी सर्वदा विरोध नहीं है अर्थात् आपके यहां चित्रज्ञानादि लक्षण इष्ट हैं, उनमें भी सर्वथा विरोध सम्भव नहीं है क्योंकि ज्ञानत्व आदि की अपेक्षा से परस्पर विरुद्ध युगपत् अनेकाकार उस ज्ञान में विद्यमान हैं।
कथंचित् विरोध का परिहार करना तो पुन: आपके यहां भी अशक्य है, अतः द्वितीय पक्ष सम्भव नहीं है अर्थात् आप भी चित्रज्ञान में नील, पीतादि की अपेक्षा से विरोध मानते हैं किन्तु ज्ञान की अपेक्षा से विरोध नहीं मानते हैं । इसी का नाम तो "कथंचित् विरोध" है ।
वह कथंचित विरोध भी साक्षात् है या परम्परा से है ? "विवादापन्न ज्ञान अपने स्वरूप से भिन्न बाह्य पदार्थ का अवलम्बन लेने वाला है क्योंकि वह ग्राह्य एवं ग्राह्यकाकार रूप है, जैसे संतानान्तर की सिद्धि।"
1 जीवादी सूक्ष्मत्वञ्चेत् स्थूलत्वं कथमित्यनेन प्रकारेण । दि० प्र०। 2 निराकुर्वताम् । खेदमनुभवमानानाम् । दि० प्र०। 3 आयासं कुर्वताम् । ता । दि० प्र.। 4 सौत्रान्तिका प्रभृतेः कथञ्चिद्विरोधस्य संभवादिति भावः । व्या० प्र०। 5 दृष्टापन्हुतिरनिबन्धनैव यतः । ब्या० प्र०। 6 बाह्यार्थग्राहकत्वं ज्ञानस्य साधयति जैनः । ब्या० प्र० । 7 धूमस्वलक्षणाद्दहनस्वलक्षणम् । ब्या० प्र० । 8 बहिरर्थग्राहकञ्च भवति । ब्या० प्र०।१ता। ब्या०प्र० । 10 सन्तानान्तरग्राहिका सिद्धिनिमनुमानरूपं यथा सन्तानान्तरलक्षणबाह्यार्थालम्बनम् । ब्या० प्र० । 11 अत्राह परः । भ्रान्तज्ञानस्य ग्राह्यग्राहकारत्वेन कृत्वा ग्राह्यग्राहकाकारत्वादिति त्वद्धतीय॑भिचारो घटते इति चेत् =स्या० व० एवं न कस्मात् यदि ज्ञानस्य ग्राह्यग्राहकाकारत्वं नास्ति तदा तव परसन्तानसाधनस्यापिव्यभिचारः प्रसजतिपरसन्तानपक्षोस्तीति साध्यो धर्मो व्यापारव्याहारादिनिर्भासादिति परसन्तानसाधनम् । दि० प्र०। 12 व्यापारव्याहारनिर्भासस्य । दि०प्र०।
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