SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 507
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२८ ] अष्टसहस्री [ स० प० कारिका ८७ समानं' हि दूषणं बहिः परमाणुषु संवित्परमाणुषु च । देशतः संबन्धे षडंशत्वं दिग्भागभेदात्', सर्वात्मना, प्रचयस्यैकपरमाणुमात्रत्वम् । प्रचयस्य परमाणुभ्यो भेदे प्रत्येक परिसमाप्त्यैकदेशेन + वा वृत्तौ प्रचयबहुत्वं सांशत्वापादनमनवस्था' च । न च परमाणुभि: 'संसृष्टैर्व्यवहितैर्वा' प्रचयस्योपकारे संसर्गासंभवो, व्यवधानेन व्यवधीयमानाभ्यां व्यवधायकस्य " सजातीयस्य, विजातीयस्य वा व्यवधाने" प्रकृतपर्यनुयोगोनवस्थाप्रसञ्जनं 2 चेति स्वपक्षघातिः स्यात् सूक्ष्मस्थूलात्मनि बहिर्जात्यन्तरे तस्यानवकाशाच्च हर्षविषादाद्यनेकाकारात्मवत् । तत्रापि यदि एक देश से सम्बन्ध मानें तब तो दिशाओं के विभाग भेद से परमाणु भी षडंशपने को प्राप्त हो जाते हैं अर्थात् कोई भी परमाणु पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण एवं उर्ध्व, अधः इन छह दिशाओं का स्पर्श करता ही है, अतः देश रूप से सम्बन्ध मानने पर उसके छह अंश मानने ही पड़ेंगे । यदि सर्वदेश से सम्बन्ध मानों तब तो प्रचय को एक परमाणुपना प्राप्त हो जावेगा अर्थात् स्कन्ध रूप बाह्य परमाणुओं के प्रचय को एवं ज्ञान परमाणु के प्रचय को एक परमाणु रूप मानना पड़ेगा । प्रचय को यदि आप परमाणुओं से भिन्न मानें तब तो पुनः प्रश्न यह होता है कि वे परमाणु प्रचय के प्रत्येक में परिसमाप्त होकर रहते हैं या एक देश से रहते हैं ? I यदि वे परमाणु प्रचय प्रत्येक में परिसमाप्त होकर रहते हैं तब तो प्रचय बहुत से हो जायेंगे | यदि एक देश से रहते हैं तब तो वे प्रचय अंश सहित मानने पड़ेंगे एवं कहीं पर भी इनकी व्यवस्था न होने से अनवस्था भी हो जायेगी । यदि आप कहो कि परमाणुओं के द्वारा प्रचय का उपचार किया जाता है तब तो प्रश्न यह होता है कि संसृष्ट-मिले हुये परमाणुओं से प्रचय का उपकार किया जाता है या व्यवहित-व्यवधान सहित (अन्तराल सहित ) पृथक्-पृथक् परमाणुओं से प्रचय का उपकार किया जाता है । यदि प्रथम पक्ष लेवो तब तो एक देश से उपकार है या सर्वदेश से ? इत्यादि प्रश्न के होने पर मिले हुये परमाणुओं से प्रचय का उपकार मानने पर संसर्ग का ही अभाव हो जाता है। दूसरे व्यवधान का पक्ष लेने पर तो व्यवधीयमान दो परमाणुओं के द्वारा सजातीय व्यवधायक का व्यवधान है या विजातीय का ? 1 अत्राह सोगत: हे स्याद्वादिन् यो निरंशः परमाणुर्भवताभ्युपगम्यते सः परमाणुरन्यैः परमाणुभिः सहैकदेशेन संबद्धते सर्वात्मना वेति प्रश्नः । एकदेशेन संबन्धे सति परमाणोः षडंशत्वमायाति दिग्भागभेदात् । कोर्थः । परमाणु स्तिष्ठति तस्य चतुर्दिक्षु चत्वारः परमाणवो लगन्ति । एक उपरि एकोधोभयो लगति अतः परमाणोः षडंशत्वं जातं तथा सर्वात्मना संबन्धे जाते सति स्कन्धस्यैकपरमाणुमात्रत्वं जातम् । दि० प्र० । 2 पूर्वोत्तरादिप्रकारेण । दि० प्र० । 3 परमाणुषु । दि० प्र० । 4 सर्वात्मना । ब्या० प्र० । 5 अनवस्थानञ्च । इति पा० । ब्या० प्र० । 6 प्रचयेन सह सम्बद्धः । व्या० प्र० । 7 देशान्तरितः । ब्या० प्र० । 8 प्रचयस्वरूपनिष्पत्तिलक्षणे । ब्या० प्र० । 9 व्यवधानविषयाभ्याम् । व्या० प्र० । 10 व्यवधानकारणस्य । ब्या० प्र० । 11 व्यवधायकान्तरेण क्षणेन व्यवधानेऽव्यवधानपक्षस्यानङ्गीकरणात् । ब्या० प्र० । 12 व्यवधीयमानकाभ्यां व्यवहितौ व्यवधायकान्तराभ्यामिति । ब्या० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy