SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 506
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीव के अस्तित्त्व की सिद्धि ] तृतीय भाग [ ४२७ दूषणप्रयोगादेव व्यवस्थापनादन्यथा' तदव्यवस्थितेर्यत्किचनवादित्वप्रसङ्गात् । तदिमे विज्ञानसंतानाः सन्ति न सन्तीति तत्त्वाऽप्रतिपत्तेष्टापन्हुतिरनिबन्धनैव', दृश्येनात्मना कथंचित्स्कन्धाकारेणादृश्यानामपि परमाणूनां बहिरपि समवस्थाने विप्रतिषेधाभावादन्त - यवत्' । अदृश्या एव हि ज्ञानपरमाणवः संविन्मात्रादृश्यादवस्थाप्यन्ते नान्यथेति युक्तमुदाहरणं, बहिः परमाणूनां व्यवस्थापने, तत्र पूर्वादिदिग्भागभेदेन' जडरूपाणां षडंशादिकल्पनया वृत्तिविकल्पेन वा परपक्षोपालम्भे स्वपक्षाक्षेपात्, तस्योपालम्भाभासत्वसिद्धेः11 । है। हम जैन इस हेतु को सिद्ध-असिद्ध दोष से रहित कहते हैं, यह बात आपको अनिष्ट है। आप इस हेतु में असिद्धत्त्व को इष्ट मानकर उसका समाधान करते हो और हमारे द्वारा माने गये सिद्धत्व को अनिष्ट कहकर दूषण दे रहे हो, अतः आप स्वयं ही साधन दूषण के प्रयोग से ही इष्ट-अनिष्ट को व्यवस्था कर रहे हो। अन्यथा-इष्टानिष्ट की व्यवस्था ही नहीं हो सकेगो, पुनः चाहे जो कुछ भी कहने का प्रसंग आ जावेगा तथा सभी ज्ञानों को भ्रांत मान लेने से 'यह' विज्ञान संतान है या नहीं इस प्रकार से तत्त्व-वास्तविक ज्ञान के न होने से इष्ट-अवयवी आदि भेद से युक्त बाह्य पदार्थों का अपन्हव करना अनिमित्तक ही है क्योंकि कथंचित् दृश्य, स्वरूप स्कंधाकार से अदृश्य भी परमाणुओं का बाह्य में भी अवस्थान मान लेने पर विरोध का अभाव है, अतर्जेय के समान । “सभी ज्ञान परमाणु अदृश्य ही हैं क्योंकि संविन्नात्र अदृश्य से व्यवस्थापित किये जाते हैं अन्यथा नहीं, इसलिये 'अंतर्जेयवत्' यह उदाहरण बाह्य पदार्थों की व्यवस्था करने में युक्त ही है । उन बाह्य परमाणुओं में पूर्व आदि दिशा भाग के भेद से जड़रूप परमाणुओं में षट् अंश आदि की कल्पना से अथवा वृत्ति-सम्बन्ध के विकल्प से हम जैन, वैशेषिक आदि को उलाहना देने पर तो आप सौगत के स्वपक्ष का ही निराकरण हो जाता है अर्थात् आपके पक्ष में तो "ज्ञानसंतान ही हैं एवं वे क्षणिक तथा अनन्यवेद्य हैं" इस कथन का ही निराकरण हो जाता है क्योंकि हम लोगों के प्रति आपका उपालम्भ उपालंभाभास है। वास्तव में उस उलाहना से हमारा निराकरण नहीं हो सकता है, कारण कि बाह्य परमाणु एवं ज्ञान परमाणु इन दोनों में समान ही दूषण आते हैं अर्थात् प्रश्न होते हैं कि परमाणुओं का सम्बन्ध एक देश से है या सर्बदेश से ? । 1 साधनासिद्धत्वाव्यवस्थितेः । दि० प्र० । 2 विज्ञानसन्तानसाधने दूषणे च बाह्यविषयं तत्त्वज्ञानमेव शरणं तच्च नेष्यते यतः । प्रमाणस्याभ्रान्तत्वे ग्राह्य ग्राहकाभावलक्षणदूषणभयाद्भ्रान्तमेव प्रमाणमंङ्गीकर्तव्यं यस्मात् । दि० प्र०। 3 यत एवं तत्तस्मादेते सौगतेनाङ्गीकृता विज्ञानसंतानाः सन्ति वा न सन्ति इत्यपरिज्ञानात्सोगतस्य दृष्टस्यार्थस्याच्छादनमप्रमाणम् । दि० प्र० । 4 विज्ञानाद्वैतस्य । तत्त्वतः स्कन्धाकारेण दृष्यात्मक स्कन्धाकारं दृष्ट्वा तत्कारणभूतपरमाणनां व्यवस्थापनेत्यर्थः । दि० प्र० । 5 तव । दि० प्र०। 6 न केवलं बहिरर्थस्य । ब्या०प्र० । 7 अन्तर्शयानां समवस्थाने प्रतिषधो नास्ति यथा । ब्या० प्र०। 8 स्थलात् । ब्या०प्र० 19 तत्र षडं शादिकल्पनया । इति पा० । दि. प्र० । तत्र पूर्वादिदिग्भागभेदेन षडं शादि । इति पा० । ब्या० प्र०। 10 अदृश्यपरमाणुरूपत्वप्रकारेण । दि० प्र० । 11 मूलं भावयति । ब्या० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy