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________________ ४२६ ] अष्टसहस्री [ स० ५० कारिका ८७ भिसंहितस्यापि सर्वविभ्रमस्य निराकरणापत्तः, भ्रान्तादेव ज्ञानात् तस्याप्यसिद्धेः । तथा परमाण्वादिदूषणेपि प्रतिपत्तव्यं', तत्त्वज्ञानं शरणमतत्त्वज्ञानादभिसंहितस्यापि परमाण्वाद्यसत्त्वस्य निराकरणापत्तेः । अन्यथा तत्कृतमकृतं स्यादिति सर्वत्र योज्यं', सर्वस्य' स्वेष्टस्य स्वयमनिष्टस्य च तत्त्वज्ञानादेव साधनदूषणोपपत्तेः । एतेन साधनदूषणप्रयोगादिति साधनमसिद्धमितीच्छन् प्रति क्षिप्तस्तदसिद्धत्वस्य स्वयमिष्टस्य तत्सिद्धत्वस्य चानिष्टस्य साधन वह तत्त्वज्ञान से ही है उसके बिना नहीं क्योंकि "सभी व्यवहार विभ्रम रूप हैं।" यह वाक्य भी तो आपका सच ही मानना होगा अन्यथा विभ्रम की सिद्धि भी तो कैसे होगी ? अतएव यह भ्रांत रूप मान्यता तो तत्त्वज्ञान से ही सिद्ध हुई ? इस प्रकार से तो आपने तत्त्वज्ञान को ही स्वीकार कर लिया। पुनः उस तत्त्वज्ञान से ही सभी को विभ्रम सिद्ध करना नहीं हो सकता है क्योंकि तत्त्वज्ञान का सद्भाव है। अन्यथा यदि आप तत्त्वज्ञान को भी भ्रांत रूप स्वीकार कर लेंगे तब तो बाह्य पदार्थों के समान ही अभिसंहित-- आपके द्वारा अभिमत सर्व विभ्रम का भी निराकरण हो जावेगा, क्योंकि भ्रांत रूप ही ज्ञान से वह सर्व विभ्रम भी सिद्ध नहीं हो सकेगा। "परमाणु है, किन्तु भ्रांतरूप है" इस प्रकार से परमाणु आदि में दूषण देने पर भी उसी प्रकार से असिद्ध दोष समझना चाहिये । अतः तत्त्वज्ञान ही शरण है, अतत्त्वज्ञान से स्वयं के स्वीकृत भी परमाणु आदि के अभाव का निराकरण करना पड़ेगा। अन्यथा-यदि तत्वज्ञान शरण न होगा तब तो तत्कृत-अकृत हो जावेगा अर्थात अतत्त्वज्ञान से निश्चित हो जावेगा। इसी प्रकार से सभी जगह समझ लेना चाहिये क्योंकि अपने इष्ट तत्त्व का साधन एवं अनिष्ट तत्त्व का दूषण ये सभी तत्त्व ज्ञान से ही बनता है अन्यथा नहीं । इस कथन से “साधन दूषण प्रयोगात्" यह हेतु असिद्ध है ऐसा कहते हुए योगाचार का खंडन कर दिया गया है क्योंकि “साधन दूषण प्रयोगात्" इस हेतु को स्वयं आपने असिद्ध रूप स्वीकार किया 1 स्याद्वाद्याह हे सौगत ! यथा सर्वव्यवहारस्य विभ्रमसाधने तव तत्त्वज्ञानशरण तथा बहिः परमाण्वादयो न सन्तीति परस्य दूषणापादनेपि तव तत्त्वज्ञानशरणमङ्गीकरणीयं कस्मादतत्त्वज्ञानात्तवाभिप्रेतस्य परमाण्वादीनामाभावस्य निराकरणघटनात् । दि० प्र०। 2 योगाचारेण । दि० प्र०। 3 अवयव्यादि । दि० प्र०। 4 मिथ्याज्ञानं । ब्या० प्र०। 5 अतत्त्वज्ञानाभिसंहितस्यापि परमाण्वायसत्त्वस्य निराकरणापत्तरित्येतदन्यथा तत्कृतमकृतं स्यादितिभाष्यविवरणत्वेन दृष्टव्यम् । दि० प्र० । 6 अन्यथा प्रमाणानङ्गीकारे सति तेनातत्त्वज्ञानेन कृतं यत्तत् अकृतं भवेदिति सर्वत्र वस्तुव्यवस्थापनादी योज्यं कस्मात् सर्वलोकस्य तत्त्वपरिज्ञानादेव स्वेष्टस्य साधनं स्वानिष्टस्य दूषणञ्च घटते । दि० प्र०। 7 अनिश्चितम् । ब्या० प्र०। 8 तत्त्वज्ञानं शरणमिति । दि० प्र० । 9 सर्वत्र योज्य इत्येतद्विवृण्वन्ति सर्वस्येति । दि०प्र० । 10 एतेन पूर्वोक्तप्रकारेण साधनदूषणप्रयोगादिति साधनस्यासिद्धत्वमभिलपन् सौगतो निराकृतः । कस्मात् । साधनस्यासिद्धत्वं सौगतस्येष्टं साधनस्य सिद्धत्वं सौगतस्यानिष्टं तयोरिष्टानिष्टयोः साधनदूषणप्रयोगादेव व्यवस्थापनं घटते यतः । अन्यथा साधनदूषणप्रयोगादेवानङ्गीकारे तयोरिष्टानिष्टयोर्व्यवस्थिति: न स्यात् यदृच्छाजल्पितञ्च प्रसजति । दि० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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