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________________ [ स० प० कारिका ५६ ४२२ ] अष्टसहस्री भेदः स्यात् । तस्यापि विभ्रमकल्पनायां न प्रमाणसिद्धिरभ्रान्तस्य ज्ञानस्य प्रमाणत्वव्यवस्थितेः । प्रमाणस्यापि विभ्रमकल्पनायां कथमन्तर्जेयमेव तत्त्वमित्यभ्युपगमो न विरुध्यते ? प्रमाणमन्तरेण तदभ्युपगमे' सर्वस्य स्वेष्टाभ्युपगमप्रसङ्गात् । 'प्रमाणभ्रान्तौबाह्यार्थयोस्तादृशान्यादृशयोः प्रमेययोरन्तर्जेयबहिर्जेययोरिष्टानिष्टयोविवेचनस्यापि भ्रान्तत्वप्रसङ्गात् । तौ हि ग्राहकापेक्षया बाह्यार्थी भ्रान्तावेव ग्राहकप्रमाणभ्रान्तेः । इति कुतस्तत्र हेयोपादेयविवेकः स्यादन्तर्जेयकान्ते ? यतस्तदभ्युपगमो न विरुद्धो भवेत् । यदि पुनः प्रमाणमभ्रान्तमिप्यते' तदा बाह्यार्थोभ्युपगन्तव्यः, तदभावे' प्रमाणतदाभास यवस्थित्ययोगात् । तथा हि, यदि आप अपने अंशमात्र के अवलम्बी ज्ञान को भी भ्रांत कल्पित करोगे तब तो प्रमाण की सिद्धि ही नहीं हो सकेगी क्योंकि आपके मत में "कल्पनापोढमभ्रांतं" इस सूत्र के द्वारा अभ्रांत ज्ञान माण रूप माना है। प्रमाण को भी विभ्रम रूप मानने पर तो "अंतर्जेय-विज्ञानाद्वैतमात्र ही "यह आपकी प्रतिज्ञा विरुद्ध क्यों नहीं हो जावेगी? और प्रमाण के बिना भी विज्ञानमात्र तत्त्व की व्यवस्था करने पर तो सभी के ही अपने-अपने माने गये तत्त्व इष्ट रूप से सिद्ध हो जायेंगे । प्रमाण को भ्रान्त मान लेने पर तो तादृश एवं अन्यादृश-प्रमाण एवं अप्रमाण रूप अंतर्जेय-बहिर्जेय रूप इष्ट और अनिष्ट जो प्रमेय हैं जो कि बाह्य अर्थ कहलाते हैं उनका विवेचन करना भी भ्रांत हो जावेगा। ___ "अंतर्जेय और बहिर्जेय रूप पदार्थ ग्राहक की अपेक्षा से बाह्यार्थ रूप हैं वे भ्रांत ही हैं क्योंकि उनका ग्राहक-प्रमाण भ्रांत रूप है।" इस प्रकार से अंतर्जेय-विज्ञानमात्र रूप एकांत का स्वीकार करने पर उस अद्वैत में आप सौगत को हेयोपादेय का विवेक कैसे हो सकेगा? कि जिससे उसकी स्वीकृति विरुद्ध न हो जावे अर्थात् विज्ञानाद्वैत की स्वीकृति विरुद्ध ही है। यदि पुन: प्रमाण को अभ्रांत रूप स्वीकार करते हैं तब तो आपको बाह्य पदार्थ स्वीकार कर ही लेना चाहिये। उसे न मानने पर प्रमाण एवं प्रमाणाभास की व्यवस्था कथमपि नहीं हो सकेगी। उत्थानिका-इसी बात को अगली कारिका द्वारा स्पष्ट करते हैं 1 अन्तर्जेयाभ्युपगमे । दि० प्र० । 2 त्वदन्यस्यापि । दि० प्र०। 3 अत उत्तरकारिकादलव्याख्यानम् । दि० प्र० । 4 भेदस्य । ब्या० प्र० । 5 प्रमाणं भ्रान्तिरिति । इति पा० । दि० प्र०। 6 अग्रेतनकारिकाया अवतारिका ज्ञेया। दि० प्र०।। त्वया। दि० प्र० । तहि । दि० प्र० । 9 बाह्यार्थः। दि० प्र०। 10 प्रमाणाभासः । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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