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________________ जीव के अस्तित्त्व की सिद्धि । तृतीय भाग [ ४२१ शब्दार्थयोः प्रमेययोरव्यवस्थानादिष्टतत्त्वानुपपत्तेर्वक्त्रादित्रयस्य बोधादित्रयं पृथग्भूतमुपेयम् । तथा सति न हेतोरसिद्धतादिदोषो', दृष्टान्तस्य वा साध्यादिवैकल्यं प्रसज्यते । स्यान्मतं 'बहिरर्थाभावाद्वक्त्रादित्रयं न बुद्धेः पृथग्भूतं, वक्त्राद्याभासाया बुद्धेरेव वक्त्रादित्वव्यवहारात्, वाक्यस्यापि बोधव्यतिरेकेणासत्त्वात्, प्रमाया बोधात्मकत्वात् । ततोऽसिद्धतादिदोषः साधनस्य हेतुदृष्टान्तलक्षणस्य' इति तन्न, रूपादेहिकस्य तद्व्यतिरिक्तविज्ञानसंतानकलापस्य च स्वांशमात्रावलम्बिनः प्रमाणस्य विभ्रमकल्पनायां साकल्येनासिद्धरन्तहृयाभ्युपगमविरोधात् । न हि रूपादेरभिधेयस्य ग्राहकस्य वक्तुः श्रोतुश्च विभ्रमकल्पनायां व्यतिरिक्तविज्ञानसंतानकलापः स्वांशमात्रावलम्बी सिध्यति परस्परमसंचारात्', येनाभिधानाभिधेयज्ञान युक्ति से वक्ता, श्रोता और प्रमाता के बोध वाक्य और प्रमा भिन्न-भिन्न है यह तात्पर्यार्थ है। वाक्य के अभाव में श्रोता को अभिधेय (वाच्य) का ज्ञान हो नहीं सकता क्योंकि वह ज्ञान वाक्य निमित्तक है और प्रमिति के अभाव में प्रमाता को शब्द एवं अर्थ रूप प्रमेय का ज्ञान नहीं हो सकने से इष्ट तत्त्व की व्यवस्था नहीं हो सकती है। अतएव वक्ता, श्रोता और प्रमाता के ज्ञान, शब्द और प्रमाण ये तीनों ही पृथक् भूत हैं ऐसा समझना चाहिये । ऐसा मानने पर हेतु में असिद्ध, विरुद्ध आदि नहीं आ सकते हैं अथवा दृष्टांत भी हेतु शब्द के समान साध्य, साधन से विकल नहीं हैं । सौगत – (विज्ञानाद्वैतवादी)- बाह्य पदार्थों का अभाव होने से वक्ता आदि तीनों ही बुद्धि से पृथग्भूत नहीं हैं क्योंकि वक्ता, श्रोता और प्रमाता के आकार रूप बुद्धि ही वक्ता आदि के व्यवहार को प्राप्त हो जाती है क्योंकि वाक्य भी ज्ञान से भिन्न कुछ है ही नहीं एवं प्रमा भी ज्ञानात्मक ही है। इसलिये आपका हेतु असिद्धादि दोषों से दूषित ही है। हेतु का दृष्टांत भी असिद्ध आदि दोषों से सहित है। जैन-यह आपका कथन सम्यक नहीं है क्योंकि रूपादि के ग्राहक, वक्ता और श्रोता एवं उससे भिन्न विज्ञान संतान का समुदाय तथा अपने अंशमात्र (स्वरूप मात्र) का अवलम्बन लेने वाला प्रमाण, इन सबको भ्रांत रूप कल्पित करने पर तो ये रूपादि सर्वथा ही सम्पूर्ण रूप से असिद्ध हो जावेंगे । पुन: अंतर्जेय-ज्ञानाद्वैत को स्वीकृति ही विरोध रूप हो जावेगी। रूपादि अभिधेय (वाच्य) ग्राहक, वक्ता एवं श्रोता इन चारों को भ्रांत रूप कल्पित करने पर इन सभी से भिन्न अपने स्वरूप मात्र का अवलंबन लेने वाले ज्ञान संतान कलाप सिद्ध नहीं हो सकते हैं क्योंकि ये परस्पर में संचार नहीं करते हैं अर्थात् ज्ञान स्वांशमात्रावलम्बी हैं अतः वे स्वरूप के भी गमक नहीं हैं । इसलिये शब्द, अर्थ और ज्ञान में आपके यहां भेद भी सिद्ध नहीं हो सकता है। 1 च । ब्या० प्र०। 2 संज्ञात्वादित्यस्य । ब्या० प्र० । 3 सबाह्यार्थत्व । ब्या० प्र०। 4 का। ब्या० प्र० । 5 बाह्यमस्ति तत्त्वत: कथं बहिरभाव इत्याह । दि० प्र०। 6 प्रमाणमस्ति नन्वित्याशंकायामाह । दि० प्र० । 7 अन्योन्यमननुप्रवेशात् । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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