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________________ अप्रत्यक्षज्ञानवाद का खण्डन ] तृतीय भाग [ अनुभवमनुसृत्य ज्ञानं प्रत्यक्षमेव न च परोक्षं ] एनेन प्रतिक्षणं निरंशं संवेदनं प्रत्यक्षं प्रत्युक्तं यथाप्रतिज्ञमनुभवाभावात्, यथानुभवमनभ्युपगमात्, स्थिरस्यात्मनः सुखदुःखादिबुद्ध्यात्मकस्य प्रत्यक्षमनुभूयमानस्य' हर्षविषादादेरनुभवात् । भ्रान्तोयमनुभव' इति चेन्न, बाधकाभावात् । सर्वत्र सर्वदा भ्रान्तेरप्रत्यक्षत्वाविशेषात् परोक्षज्ञानवादानुषङ्गः सौगतस्य । कथंचिद्भ्रान्तावेकान्तहाने: ' स्याद्वादानुप्रवेशः । न केवलं निर्विकल्पकेर्थदर्शने परोक्षज्ञानादविशेष:' । किं तर्हि ? तद्व्यवस्थाहेतौ विकल्पस्वसंवेदनेपि विकल्पानतिवृत्तेः सर्वथा विकल्पस्य ' भ्रान्तत्वे बहिरिव स्वरूपेपि भ्रान्तेरप्रत्यक्षत्वा है । अर्थात् द्रव्येन्द्रियादि रूप हेतु व्यभिचारी है क्योंकि वह हेतु ज्ञान के अभाव में भी देखा जाता है | ज्ञानोत्पत्ति के प्रति कारण रूप इन्द्रिय अथवा मन अवश्य ही अर्थपरिच्छित्ति रूप कार्य वाले हैं यह बात सुघटित है | [ ४०३ [ इन्द्रियादि का भी ज्ञान परोक्ष सिद्ध नहीं होता है । ] अतएव प्रत्यक्ष, इतर बुद्धि का अवभास स्वसंवेदन से प्रत्यक्ष विरुद्ध है और ज्ञान का परोक्षत्व अनुमान से विरुद्ध है । तथाहि सुख-दुःखादि ज्ञान को परोक्ष रूप स्वीकार कर लेने पर हर्ष-विषादादि भी नहीं हो सकेंगे । जैसे भिन्न आत्मा में सुख-दुःखादि के होने पर अन्य को हर्ष - विषादादि नहीं होते हैं । I [ अनुभव के अनुसार ज्ञान प्रत्यक्ष ही है, परोक्ष नहीं है । ] इसी कथन से "प्रतिक्षण, निरंश, संवेदन प्रत्यक्ष है" इस मान्यता का भी खण्डन कर दिया गया है क्योंकि प्रतिज्ञा के अनुसार हर्षादि के अनुभव का अभाव है और स्थिर एवं सांश रूप से जैसा अनुभव आ रहा है वैसा आपने स्वीकार ही नहीं किया यह भिन्न हेतु है । सुख-दुःखादि बुद्ध्यात्मक, स्थिरभूत, आत्मा के ही प्रत्यक्ष से अनुभूयमान हर्ष-विषादादि देखे जाते हैं । सौगत - यह अनुभव ही भ्रांत है । जैन - ऐसा नहीं कहना क्योंकि इस अनुभव में बाधा का अभाव है । अच्छा ! हम आपसे 1 यथा भवति । ब्या० प्र० । 2 आह सौगतो हर्षविषादादीनामनुभवो भ्रान्त इति चेत् स्या० वदत्येवं न कस्मात् हर्षादीनामनुभवे बाधकप्रमाणं नास्ति यतः = पुनराह स्याद्वादी हे सौगत तवानुभवनं सर्वथा भ्रान्तं कथञ्चिद्भ्रान्तं वेति प्रश्नः सर्वत्र सर्वदा भ्रान्तं चेत्तदा प्रत्यक्षत्वसमानात् प्रत्यक्षज्ञानवादिनः सौगतस्य परोक्षज्ञानवादे प्रवेशः स्यात् । तथानुभवनस्य कथञ्चिद् भ्रान्तौ सत्यां स्याद्वादमतप्रवेशः कस्मादेकान्तस्य हानित्वात् = सोगताभ्युपगते निर्विकल्पक दर्शने परोक्षज्ञानेन कृत्वा समानता केवलं न तर्हि किमित्युक्त आह निर्विकल्पकदर्शनस्य स्थापनाया निमित्तभूते विकल्पस्वसंवेदनेपि परोक्ष समानता कुतः विकल्पानुलंघनात् । दि० प्र० । 3 विकल्पज्ञानस्य । ब्या० प्र० । 4 सुखदुःखादिबुद्धात्मकस्यात्मनः संबन्धिनः सुखदुःखादेरनुभवस्य । ब्या० प्र० । 5 fafoneपकस्याञ्चित्करत्वात् । व्या० प्र० । 6 निश्चयस्य । ब्या० प्र० । 7 नीले यथा । ब्या० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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