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________________ ४०२ ] अष्टसहस्री [ स० प० कारिका ८३ नाप्रत्यक्षज्ञानेन ? तस्यैव ज्ञानत्वात् । व्यभिचारी चेन्द्रियादिहेतुर्ज्ञानाभावेपि भावात् कारणस्येन्द्रियस्य मनसो वावश्यं कार्यवत्त्वानुपपत्तेः । ततः 'प्रत्यक्षेतरबुद्ध्यवभासस्य स्वसंवेदनात्प्रत्यक्ष विरुद्धं, ज्ञानस्याप्रत्यक्षत्वमनुमानविरुद्धं च । तथा हि । सुखदुःखादिबुद्धेरप्रत्यक्षत्वे हर्षविषादादयोपि' न स्युरात्मान्तरवत्' । विशेषण से विशिष्ट पदार्थ भी कहीं प्रतीत नहीं हो सकता है । अतः असिद्ध रूप होने से हेतुपने काही अभाव सिद्ध है ऐसा कहा गया है । इस कथन से "अर्थमहं जानामि " इस प्रकार की प्रतीति से आत्मा का अर्थज्ञान स्वसंविदित है । अर्थ की प्रकटता ज्ञान का धर्म है और अर्थ की प्रकटता अप्रत्यक्षरूप लिंगज्ञान में हेतु है इस कथन का भी खण्डन कर दिया गया है क्योंकि उस आत्मा के ज्ञान को करण होने से अप्रत्यक्ष रूप मानने पर उस प्रकार की प्रतीति नहीं हो सकती है । इसलिये परिच्छिद्यमानत्व धर्म रूप विशेषण से रहित एवं ज्ञान की अपेक्षा से रहित स्वभाव वाला पदार्थ ही परोक्ष ज्ञान में हेतु हुआ और वह हेतु व्यभिचारी ही है । अर्थात् जहाँ-जहाँ परोक्ष ज्ञान है वहां-वहां अर्थ की प्रकटता है इस प्रकार की व्याप्ति का अभाव होने से परोक्ष ज्ञान के अभाव में भी अर्थ का रूप देखा जाता है । "इसी कथन से इन्द्रिय, मन आदि प्रत्यक्ष हैं इसका भी खण्डन कर दिया गया है । अर्थात् मुझ में चक्षु आदि इन्द्रियां हैं क्योंकि रूपादि ज्ञान की अन्यथानुत्पत्ति है", यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि वह ज्ञान भी अतीन्द्रिय होने से परोक्ष ज्ञान के समान है अतः असिद्ध है । अथवा अप्रत्यक्ष ज्ञान से उसमें समानता मानों तब तो इन्द्रिय और परोक्ष ज्ञान में स्वसंविदित रूप किसी एक भावेन्द्रिय और भावमन आदि के द्वारा अर्थ का ज्ञान हो जाने पर द्वितीय अप्रत्यक्ष ज्ञान से क्या प्रयोजन है ? क्योंकि वे भावेन्द्रिय ही ज्ञानरूप हैं । अर्थात् जैन मत में भावेन्द्रिय और भावमन को ज्ञानरूप ही माना है "लब्ध्युपयोगी भावेन्द्रियम्" लब्धि और उपयोग भावेन्द्रिय हैं ऐसा सूत्र में कहा है । ज्ञान के रोधक ज्ञानावरणादि कर्मों का क्षयोपशम होना लब्धि है । उसके अनन्तर पदार्थ को जानने के लिये चेनना का जो व्यापार है वह उपयोग है । अतः आप 'इन्द्रियादि हेतु' व्यभिचारी 1 स्या० व० हे सांख्यनैयायिकमीमांसादेर्ज्ञानस्य परोक्षत्वं यदुच्यते त्वया तत्प्रत्यक्षप्रमाणेन विरुद्धं कस्मात्प्रत्यक्षज्ञानपरोक्षज्ञानप्रकाशस्य स्वसंवेदनात् । वाथवा ज्ञानस्य परोक्षत्वमनुमानप्रमाणेन च विरुद्धस् । कथमित्युक्त आह बुद्धिः पक्षः प्रत्यक्षा भवतीति साध्यो धर्मः तत्कार्यहर्षविषाद। दिसाक्षात्करणात् सुखदुःखादिबुद्धेरप्रत्यक्षत्वे सति हर्षविषादादयो न स्युः यथान्यपुरुषे निजापेक्षया बुद्धेः परोक्षत्वे हर्षादयो न स्युः = एतेन परोक्षज्ञानवादिनः सांख्यादेः ज्ञानस्य परोक्षत्वनिराकरणेन क्षणक्षयि अंशं निर्विकल्पकदर्शनं प्रत्यक्षं स्यादिति सोगताभ्युपगतं निराकृतं कस्मात् यथा प्रतिज्ञायते सौगतैस्तथा लोके तु भावो नास्ति यतः पुनर्यथा तु भूयते तथानङ्गीकारात् = कथमनुभव इत्याह सुखदुःखादिबुद्धिस्वरूपं निश्चलं ज्ञानं पुरुषो वा प्रत्यक्षमनुभूयमानं हर्षविषादादिकमनुभवतीत्यनुभवः । दि० प्र० । 2 अप्रत्यक्षस्य | ब्या० प्र० । 3 स्वस्य । व्या० प्र० 4 आत्मान्तराप्रत्यक्षत्वे यथा हर्षादयः स्वस्य न स्युः । ब्या० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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