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अप्रत्यक्षज्ञानवाद का खण्डन ] तृतीय भाग
[ ४०१ भाव' एवेति चेन्न', तस्य ज्ञानासिद्धौ प्रतिपत्तिविरोधात्, विशेषणाप्रतीतौ' तद्विशिष्टत्वस्य' क्वचिदप्रतीतेरसिद्धत्वेन हेतुत्वायोगस्याभिधानात् । एतेनार्थमहं जानामीति प्रतीतेरात्मनोर्थज्ञानं स्वसंविदितमर्थप्राकट्यं ज्ञानधमोऽप्रत्यक्षायां लिङ्गबुद्धौ लिङ्गमित्येतदपास्तं, तस्य बुद्धेरप्रत्यक्षत्वे तथा प्रतीतेरयोगात् । इत्यविशिष्ट एव ज्ञानानपेक्षस्वभावोर्थस्तद्धेतु: स्यात् । स च व्यभिचार्येव । एतेनेन्द्रियादिप्रत्यक्षं प्रत्युक्तं, तस्याप्यतीन्द्रियत्वेनाप्रत्यक्षज्ञानादविशेषेणासिद्धेः । विशेषेण वा तयोरन्यतरेण भावेन्द्रियादिना स्वसंविदितेनार्थपरिसमाप्तेः किं द्वितीये
जैन-यदि ऐसा कहते हो तब तो वह आत्मा अर्थ की परिच्छित्ति में भी स्वयं ही करण हो जावे क्या बाधा है ? क्योंकि कर्ता से अभिन्न भी कथंचित्-चित्स्वरूप से अर्थ को प्रकटता में अविभक्त-कर्तृक करण सिद्ध है जैसे कि कर्ता से भिन्न कुठार लक्षण करण सिद्ध है।
इस प्रकार कर्ता से अभिन्न रूप करण के सिद्ध हो जाने से अर्थ परिच्छेद रूप (अर्थ प्रकटतारूप) अर्थ धर्म की स्वसंवित्ति में स्वात्मा ही करण है ऐसा आप मीमांसक के द्वारा स्वीकार कर लेने पर तो भिन्न करण मानना अकिंचित्कर ही है ऐसा कहा गया है । ततः आत्मा और अर्थपरिच्छेद इन दोनों में से किसी एक स्वात्मस्वरूप करण के द्वारा ही पूर्णतया अर्थ का ज्ञान हो जाने से पुनः परोक्ष ज्ञानरूप द्वितीय करण से क्या प्रयोजन ? अर्थात कुछ भी नहीं है।
__और जो यह अर्थ प्राकट्य रूप अर्थज्ञान है यदि वही घटादि पदार्थ का स्वलक्षण (स्वरूप) है तब तो व्यभिचार दोष आने से वह अहेतु है। अर्थात् अविनाभाव का अभाव होने से यह हेतु अनैकांतिक है। दूर एवं व्यवहित पदार्थ के ज्ञान के अभाव में भी मौजूद रहते हैं। क्योंकि अप्रत्यक्ष ज्ञान को साध्य करने पर वह अर्थस्वरूप उसके अभाव में भी विद्यमान है। अन्यथा-यदि परोक्ष ज्ञान के अभाव में उस अर्थ प्रकटता का भी अभाव मानोगे तब तो पदार्थ के ही अभाव का प्रसंग आ जायेगा, किन्तु प्रतिनियत देशादि रूप से ज्ञान का अभाव होने पर पदार्थ का अभाव तो है नहीं।
शंका-परिच्छिद्यमान रूप धर्म से विशिष्ट पदार्थ रूप धर्मी का अभाव ही है।
जैन - ऐसा नहीं कहना, क्योंकि परोक्ष होने से ज्ञान हो असिद्ध है अतः ज्ञान की सिद्धि न होने पर उस पदार्थ का ज्ञान होना विरुद्ध ही है क्योंकि विशेषण की प्रतीति न होने पर तो उस
1 ज्ञानाभावात् । ब्या० प्र०। 2 आह परोक्षज्ञानवादी ज्ञानेन ज्ञेयमानत्वधर्मेण विशेषणेन युक्तस्यार्थस्याभाव इति चेत् स्या० एवं न। कुतः ज्ञानस्यासिद्धौ सत्यां तस्य ज्ञानविशेषणेन विशिष्टस्यार्थस्य निश्चयो विरुद्धयते यतः पूनविशेषणाभावे तेन विशेषणेन विशिष्टत्वस्यार्थस्य सर्वत्राभावात् पुनः साधनस्यासिद्धत्वे न हेतुत्वं न घटते इति वचनात् एतेनार्थप्राकट्यस्यार्थधर्मनिराकरणद्वारेण अहं कर्ता, अहं जानामीति प्रत्ययात्पुंसः अर्थबोधात् स्वसंविदितमर्थप्राकट्यं ज्ञानधर्मः सन् परोक्षज्ञाने साध्ये साधनं स्यादित्यपि निषिद्धं कुतः ज्ञानस्य परोक्षत्वे सति तस्यार्थप्राकट्यस्य तथा प्रतीतेः इति कोर्थोर्थमहं जानामौति प्रत्ययस्याघटनात् । दि० प्र०। 3 परिच्छिद्यमानत्वमेव विशेषणम् । दि० प्र० 14 विशेषणम् । दि० प्र०। 5 आत्मनः । दि० प्र.1 6 विशेषे वा ततोन्यतरेण । इति पा० । दि० प्र०।
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