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________________ ४०० ] अष्टसहस्री [ स० १० कारिका ८३ स्वात्मैवेति चेत्स एवार्थपरिच्छित्तावपि करणमस्तु, कर्तुरनन्यस्यापि कथंचिदविभक्तकर्तृ कस्य करणस्य सिद्धेविभक्तकर्तृ कवत् । एतेनार्थपरिच्छेदस्यार्थधर्मस्य स्वसंवित्तौ स्वात्मनः करणत्वे करणान्तरमकिंचित्करमुक्तम् । ततः पुरुषार्थपरिच्छेदयोरन्यतरेण स्वात्मनैव करणेनार्थपरिसमाप्ते: । किं द्वितीयेन करणेन परोक्षज्ञानेन ? यच्चेदमर्थज्ञानं तच्चेदर्थस्वलक्षणं स्याद्वयभिचारादहेतुः, अप्रत्यक्ष ज्ञाने साध्ये तस्यार्थस्वरूपस्य तदभावेपि' भावादन्यथार्थाभावप्रसङ्गात् । न च ज्ञानस्याभावेर्थस्याभावः । परिच्छिद्यमानत्वधर्मेण धर्मिणो विशिष्टस्यार्थस्या भी सच्ची मीमांसा करना नहीं जानते हैं। परिछिद्यमानरूप (जाना गया) ज्ञान से उत्पन्न होने वाला अर्थ का धर्म और अर्थज्ञान इनमें उस परोक्षज्ञान से भेद कैसे सिद्ध होगा कि जिससे वह अर्थ प्रकटता हेतु हो सके ? अथवा आत्मा को स्वसंविदित मान करके उसमें भेद स्वीकार करेंगे तब तो उन दोनों में से किसी एक आत्मा के द्वारा ही अर्थ का ज्ञान हो जावेगा। पुनः द्वितीय-परोक्ष ज्ञान को कल्पना से क्या प्रयोजन है ? क्योंकि स्वसंविदित अर्थ की प्रकटता से ही अपने अर्थ का ज्ञान सिद्ध है इसलिये परोक्ष ज्ञान तो अकिंचिकर ही रहता है। अथवा आप आत्मा को स्वसंविदित-अर्थ को जानने वाला मानेंगे तब तो उसो से अर्थ की परिच्छित्ति सिद्ध हो जाने से इस द्वितीय परोक्ष ज्ञान की कल्पना से क्या प्रयोजन है ? मीमांसक-वह परोक्ष ज्ञान करण है इसलिये अकिंचित्कर नहीं है क्योंकि आत्मा तो कर्ता है और अर्थ कर्म है। ये दोनों करण नहीं हो सकते हैं और ज्ञान रूप करण के बिना अपने स्वरूप को जानने रूप अथवा पदार्थ को जानने रूप क्रिया ही संभव नहीं है । जैन - यदि ऐसी बात है तब तो आत्मा की स्वसंवेदन रूप क्रिया में करण क्या होगा? मीमांसक-आत्मा के स्वसंवेदन में तो वह आत्मा ही स्वतः है। 1 स्वस्वरूपम् । दि० प्र०। 2 एतेन कर्तृकरणयोः कथञ्चिभिन्नत्वव्यवस्थापनेनार्थज्ञानस्य अर्थधर्मरूपस्य स्वसंवेदने सति स्वरूपस्यैव करणवमायाति तदाम्यत्करणमकिञ्चित्करं प्रतिपादितम् =यत एवं ततः पुरुषार्थज्ञानयोद्धयोमध्ये एकेन स्वरूपेणंव करणेनार्थः परिसमाप्यते निश्चीयते तदा तदापरोक्षज्ञानेन द्वितीयेन करणेन किन किमपि । दि० प्र० । 3 अर्थपरिच्छत्तौ । परोक्षज्ञानम् । ब्या० प्र०। 4 प्रयोजन । ब्या० प्र०। 5 स्याद्वाद्याह हे परोक्षज्ञानवादिन् किञ्च विशेषः यदिदमर्थज्ञानं तद्यद्यर्थधर्म इत्यङ्गीक्रियते त्वया तदापरोक्षज्ञानवादिन किञ्च विशेष: यदिदमर्थज्ञानं तद्यद्यर्थधर्म इत्यङ्गीक्रियते त्वया तदा परोक्षज्ञाने साध्यविषये व्यभिचारादहेतु: स्यात् कोर्थोर्थज्ञानं साधनं परोक्षं न साधयति कुतस्तस्य परोक्षज्ञानस्याभावेपि अर्थरूपस्यार्थज्ञानस्य सद्भावात् अन्यथा परोक्षज्ञानाभावेप्यर्थज्ञानस्यासद्भावे सति बहिरर्थाभावः प्रसजति यतः ज्ञानाभावे स चार्थाभावो न दश्यते। कोर्थः ज्ञानमर्थं मा गृण्हातु तथापि घटादिबहिरर्थं स्वरूपेण तिष्ठति । दि० प्र०। 6 परोक्षज्ञानाभावेप्यभावो यद्यर्थप्राकट्यस्य । ब्या० प्र०। 7 परोक्षज्ञानम् । दि० प्र०। 8 दुरव्यवहितार्थस्य ज्ञानाभावेपि भावात् । दि० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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