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________________ अप्रत्यक्षज्ञानवाद का खण्डन ] तृतीय भाग [ ३६६ स्वसंविदितं प्राकटयमर्थस्वरूपं स्वसंविदितमित्याचक्षाणो विपरीतप्रज्ञः । परिच्छिद्यमानत्वस्य ज्ञानजस्यार्थधर्मस्यार्थज्ञानस्य कुतस्ततो विशेषो येन तल्लिङ्ग सिध्येत् ? पुंसः स्वसंविदितत्वेन ततो विशेषे वा 'तदन्यतरेणार्थपरिसमाप्तेः किं द्वितीयेन ? स्वसंविदितार्थपरिच्छेदादेव स्वार्थपरिच्छित्तिसिद्धरप्रत्यक्षज्ञानस्याकिंचित्करत्वात् । पुंसो वा स्वसंविदितार्थत्वेनार्थपरिचछेदसिद्धेः किमनेन ? तस्य' करणत्वान्नाकिंचित्करत्वमात्मनः कर्तृत्वादर्थस्य च कर्मत्वात्करणत्वविरोधात्, करणमन्तरेण क्रियायाः संभवाभावादिति चेत्तहि पुंसः स्वसंवित्तौ किं करणम् ? - शंका-बाह्य पदार्थ प्रत्यक्ष हैं अतः अर्थ की प्रकटता रूप उसका धर्म भी प्रत्यक्ष है। समाधान - ऐसा नहीं कहना क्योंकि पदार्थ भी तो स्वतः प्रत्यक्ष नहीं हैं। [ मीमांसक कहता है कि अर्थ स्वतः प्रत्यक्ष नहीं है तो न सही किन्तु अपने परोक्षज्ञान में प्रतिभासमान पदार्थ प्रत्यक्ष हो जावेंगे। इस पर जैनाचार्य उत्तर देते हैं ] स्वज्ञान-अपने परोक्ष ज्ञान में प्रतिभासमान पदार्थ को यदि आप प्रत्यक्ष मानोगे तब तो भिन्न संतान के ज्ञान में भी पदार्थ साक्षात् प्रतिभासमान है उसे भी प्रत्यक्ष मानना पड़ेगा। क्योंकि वह भिन्न संतान का ज्ञान भी अनुमेय रूप से परोक्ष ज्ञान के समान ही है कोई अन्तर नहीं है। मीमांसक-बाह्य अर्थ की प्रकटता एवं प्रमाता दोनों ही स्वसंविदित हैं अतः अर्थ की प्रकटता ही ज्ञान में हेतु है। जैन-यदि ऐसा कहते हो तब तो अर्थ का धर्म-अर्थात् अर्थ की प्रकटता स्वसंविदित कैसे हो सकती है ? जैसे कि अर्थ स्वसंविदित नहीं है। अर्थात् जैसे अर्थ स्वयं को जानने वाला नहीं है उसी प्रकार से अर्थ की प्रकटता भी स्वसंविदित नहीं है। _इस प्रकार से आप मीमांसक ज्ञान को तो अस्वसंविदित मान रहे हैं तथा अर्थ की प्रकटता रूप अर्थ के स्वरूप को स्वसंविदित कह रहे हैं अत: आप विपरीत बुद्धि वाले ही हैं मीमांसक होकर 1 पक्ष इति पाठा० । दि० प्र०। 2 ज्ञेयमानस्य ज्ञानात्ज्ञातस्य बहिरर्थधर्मस्येशस्यार्थज्ञानस्य ततो बहिरर्थाद्विशेषः कुतो न कुतोपि येन केन तदर्थज्ञानं ज्ञानलिङ्ग घटेदपितु न केनापि =वाथवा पुंसः पुरुषस्यात्मनः स्वसंविदितेन कृत्वार्थज्ञानस्य ततोर्थाद्विशेषे सति द्वयोः पुरुषार्थज्ञानयोर्मध्य एकेनवार्थो घटादिको निश्चीयते द्वितीयेन परोक्षरूपेण स्वज्ञानेन कि न किमपि कस्मात् स्वसंविदितरूपादर्थज्ञानादेव स्वग्राह्यबहिरर्थस्य निश्चयः सिद्धयति कस्मात्परोक्षज्ञानमकिञ्चित्करं यतः वा अथवा स्वसंविदितरूपात्पुरुषादर्थपरिच्छेदः सिद्धयति ततोनेन परोक्षज्ञानं कि न किमपि । दि० प्र०। 3 अर्थप्राकट्यस्य च । ब्या० प्र०। 4 परोक्षज्ञानात् । ब्या० प्र०। 5 स्वार्थपरिच्छेदात् । दि० प्र० । 6 पराह तत्परोक्षज्ञान करणरूपमस्ति तस्मात्तस्याकिञ्चित्करत्वं न सकिञ्चित्करत्वमेव कुतः । आत्मा कर्ता अर्थ: कर्म तयोः करणत्वं विरुद्धयते यतः स्याद्वाद्याह । तृतीयं करणमपि युज्यते कुतः करणं विना ज्ञप्ति क्रिया न संभवति यतः । स्याद्वाद्याह । तहिं पुरुषस्य स्वसंवेदने सत्यन्यत् कारणं किमिति पृष्ट पराह पुरुषस्वरूप एव करणमिति चेत् = स्या० तदा पुमानेवार्थज्ञानेपि करणकारकमस्तु कर्तुः पुंसः सकाशात् द्रव्यापेक्षयाऽभिन्नस्यापि करणस्य पर्यायापेक्षया तस्य यथा कथञ्चिद्भिन्नकर्तृत्व तथा कथञ्चिदविभक्तकर्तृ कत्वमस्ति । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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